Friday, February 22, 2019

अनुसूचित जाती की महिलाओंपर हो रहे अत्याचारों की स्थिति: एक आकलन



भारत में, अनुसूचित जाति के महिलाओं की संख्या भारत के कुल जनसंख्या से लगभग 16% प्रतिशत है। पुरानी भारतीय जातीप्रणाली के अनुसार, अनुसूचित जाति को भारतीय समाज में सबसे निचली जाति में से एक माना गया। अनु.जाती की महिलाएं दशकों से आर्थिक, नागरिक, सांस्कृतिक एंव राजनीतिक अधिकारों से वंचित रही है।सामाजिक बहिष्कार का शिकार होना उनके लिए आम बात है। अनुसूचित जाति समुदाय की महिलाओं को न केवल भेदभाव, बल्कि बलात्कार, हत्या, बलपूर्वक अपहरण और नग्न परेड जैसे अमानवीय अत्याचारों से सदैव पीड़ित पाया जा रहा है। अनु.जाती की महिलाएं विशेषत: ज्यादातर गरीब, भूमिहीन और निरक्षर होने के कारन शैक्षणिक एंव आर्थिक स्थिति में समाज के निचले पायदान पर स्थित है। थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन द्वारा महिलाओं के मुद्दे पर किए गए सर्वेक्षण के अनुसार,
भारत को महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के लिए सबसे खतरनाक देश के श्रेणी में रखा गया।साथ ही घरेलू काम के लिए मानव तस्करी, श्रम, जबरन शादी और यौन दासता भी मौजूद है।रिपोर्ट में यह भी कहा कि, भारत की सांस्कृतिक धरोहार महिलाओं को विषमता और अन्याय से अधिक प्रभावित करती है। संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास निर्देशांक द्वारा लैंगिक असमानता (जीआईआई) का आकलन किया गया, जहा भारत को 155 देशों में से 130 वें स्थान पर रखा गया।
अनुसूचित जाति की महिलाएँ सामाजिक असंतुलन, आर्थिक और राजनीतिक शक्ति समीकरणों के परिणामस्वरूप लिंग, जातिगत भेदभाव और हिंसा को स्थानिक रूप से अनुभवित करती हैं। भारत में ऐसे उच्च जातीस्तरीय लोग हैं, जो अनुसूचित जाति की महिलाओंके किसी भी स्वाभिमान स्वरूप परिस्थितियोंको बर्दाश्त नहीं करते तथा हर कीमत पर उन्हें या उनकी आवाज को दबाने के लिए तैयार रहते हैं। संयोग से, यह घटना अनुसूचित जाति की महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। लेकिन वह अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ बोलने में आज भी सक्षम नहीं हैं। डॉ.बाबासाहब आंबेडकरने सही रूप से कहा था कि, किसी भी देश के प्रगति को मापने के लिए उस देश की महिलाओ ने कितनी प्रगति हासिल की है उस पर निर्भर होती है। अनु.जाती के महिलाओं के सन्दर्भ में उन्होंने कहा, शिक्षा सामाजिक दासता को काटने, आर्थिक स्थिति को उभारने तथा राजनीतिक स्वतंत्रता और सामाजिक स्थिति हासिल करने के लिए सही हथियार है। देश में अनु.जाती के महिलाओं पर दिनों दिन बढ़ते अत्याचारो की सांख्यिकी का ज्ञात होना और उससे जुड़े हुए मुद्दों पर चर्चा करना अनिवार्य है। उससे अनुसूचित जाति की महिलाओं पर हो रहे अत्याचारो पर विविध माध्यमोद्वारा सरकारी तंत्रपर उसके प्रभावी उपायोके अंमल के लिए दबाव बनाया जा सकता है।
अनुसूचित जाति की महिलाओं पर अत्याचार
अनू.जाती / जनजाती अत्याचार अधिनियम, 1989 (पीओए) को संविधान के अनुसार लागू किया गया, जिसका उद्देश्य  अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति समुदाय के प्रति घृणा से होने वाले अपराधों और अत्याचारों को रोकना था। स्थायी राष्ट्रीय आयोग महिलाओं सहित अनु.जाती/जमातीके अधिकार की सुरक्षा करता है, लेकिन अनुसूचित जाति महिलाओं के खिलाफ अत्याचारों पर कार्रवाई वांछित स्तर तक नहीं की जाती।गृह मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट एंव राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के दस वर्षीय (2007 से 2016 तक) आंकड़ों का अध्ययन करने से कुछ तथ्यांश सामने आते है। पता चलता है की, अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ अपराध / अत्याचार की घटनाओ में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। सन 2007 में अत्याचारों की कुल घटनाए 30031 थी। वही सन 2016 तक बढ़कर 40801 हो गई है।आकृति 1. के नुसार, अनु.जाती के खिलाफ का अपराध दर सन 2011 में 2.8 था। यही दर 2012 में 16.7 से बढ़कर सन 2016 तक 20.3 हो गया।(यह दर 1 लाख अनु.जाती की जनसंख्या के अनुसार है) इसी तरह अनु.जाती पर हो रहे बलात्कार, मर्डर एंव उनके अपमान की संख्या में हर साल वृध्दी दिखाई दे रही । इसका सीधा अर्थ, अत्याचार अधिनियम,1989 के उल्लंघन का डर सवर्ण जाती के लोगोंके मस्तिष्क से खत्म हो गया और वह केवल कागजी कानून बनकर रह गया है।
बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों से संबंधित आंकड़ों को देखने पर अनुसूचित जाति की
महिलाओं की स्थिति और अधिक भयावह लगती है। आकृति 2 के दशकीय आकडोसे पता चलता है की,बलात्कारोके मामलों की प्रवृत्ति 2008  के अलावा 2007 से 2010 तक समसमान है। लेकिन सन 2011 से 2016 तक उसकी संख्या 1557 से बढ़कर 2541 तक हो गई है।इससे स्पष्ट है कि, अनुसूचित जाति की महिलाओं को लक्षित किया जा रहा है। गंभीर अपराधों के यह आकडे कही अधिक होते है।लेकिन आर्थिक और राजनीतिक रूप से दबंग लोगों के प्रभाव के कारण अपराधोंका पंजीकरण नहीं होता। पोलिस प्रशासन भी एफआयआर दाखिल करने के बजाय उन्हें चौकी से भगा देता है।
आकृति. 3 के अनुसार, अनु.जाती /जनजाति प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटी एक्ट, 1989 के तहत दर्ज मामलों के रुझान से स्पष्ट है कि, वर्ष 2007 से 2013 तक, दर्ज मामलों की संख्या 9819 से बढ़कर 13975 हो गई। लेकिन बाद के वर्ष 2014 से, मामलों की संख्या 8887 (2014), 6005 (2015) और 5082 (2016) से घटती दिखाई दे रही है। यह स्पष्ट रूप से इशारा करता है कि, अनु.जाती /जनजाति के लोग शिकायत करने के लिए पोलिस चौकी में संपर्क कर रहे हैं, लेकिन उनकी शिकायतोंको अनु.जाती /जनजाति प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटी एक्ट, 1989 के तहत पंजीकृत नहीं किया जाता। इससे और पता चलता है कि, पोलिस और अधिकारी समाज के सबसे कमजोर वर्गों की रक्षा करने या उन्हें न्याय देने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।

निष्कर्ष:
ऊपर निर्देशित दशकीय आकड़ोसे पता चलता है कि, वर्षोके हर दिन अनुसूचित जाती के महिलाओ पर क्रूरतम अपराधों जैसे रेप, हत्या, डकैती, धोखाधड़ी, विनय और अपहरण आदि बढ़ रहे है।अनु.जाती के अत्याचारो  के मामलों में सजा की दर 2% से कम है। यह सरकारी मिशनरी तथा अधिकारियोका कानून का अनुशीलन न करनेका नतीजा है।गाव और कस्बे के दबंगाई लोगोंकी जातीय मानसिकता जिसे धर्म और प्रथा प्रोत्साहित करती है, वह सर्वस्व जवाबदेही है। अधिकारी उची जाती के होने के कारण न्याय नहीं मिलता, इसके लिए अनु.जाती एंव जमाती के अधिकारियोंकी नियक्ति बहुत जरुरी है। सरकारे बदलने से अनु.जाती के महिलाओ तथा समुदायोंपर हो रहे अत्याचारों का बढ़ना या कम होना यह एक अन्य रिसर्च का मुद्दा है।
आर्थिक और सामाजिक सर्वेक्षण के अनुसार भूमिहीन अनु. जातियोंकी संख्या 54.71% प्रतिशत है. इनकी महिलाए अक्सर सवर्णों एंव दबंगोसे अधिक से अधिक प्रताड़ित होती है. मानो, रोज की जिंदगी अपमान, बलात्कार और भूखे की साए में जिनी होती है. अनु.जाती के महिलाओंको मानवता के बजाय उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा। पुलिस अनु.जाती /जनजाति प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटी एक्ट, 1989 के तहत शिकायत दर्ज नहीं करती और इसके बजाय आईपीसी के तहत शिकायत दर्ज करती है। अपराधियोंके दबाव और धमकी के कारण महिलाए शिकायत दर्ज नहीं करती। पुलिस भी पिडीतोसे शत्रुतापूर्ण तरीकेसे व्यव्हार करते है।उनके लिए अच्छा सरकारी वकील उपलब्ध्द नहीं कराया जाता।राज्य सरकारे भी उनके मामलों को विशेष अदालतों में चलाने के लिए अनिच्छुक होते है। यहातक, न्यायाधीश भी पक्षपाती ढंग से दुर्भाग्यवश न्याय देते है।इसीलिए अनु.जाती के महिलाओ पर हुए अत्याचार और बलात्कार के मामलों में आरोपी छुट जाते है। इसे बदलना जरुरी है. लेकिन प्रश्न है, इसे बदलेगा कौन? अनू.जाती के चुने गये राजनैतिक प्रतींनिधी उनकी परिस्थितीयोंको बदल देंगे यह एक भ्रम है। नये रास्ते ढुंढने होंगे। यह एक बडी चुनौती है।

बापू राऊत,
9224343464
अध्यक्ष, मानव विकास संस्था,
मुंबई, महाराष्ट्र


No comments:

Post a Comment