Monday, September 16, 2019

ऐसा धर्म, जहा भगवान नहीं


भगवान तथा इश्वर कहा है? कैसा है? किसीने देखा नही। पर उसके अनुभूति पर विश्वास रखा। अनुभूति पर विश्वास रखो कहनेवाला कोण होता है? मन के डर को अनुभूति कहना कितना सच है? झूठ बोलना आसान है, लेकिन सच बोलने के लिए हिंमत चाहिए होती है। दुनिया का हर एक धर्म ईश्वर से जुडा है। लेकिन दुनिया में कुछ ऐसा भी धर्म और लोग है, जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते। वही  इश्वर आज किसी की निजी संपत्ती बन बैठा है। उसे करोडो लोगोंके आस्था का केंद्र बना दिया है। इस आस्था के केंद्र “सौदेबाजी और लुट” के अड्डे बन गए। लेकिन लोग पुण्य और पाप के भय से चुप्पी साधे हुए है।


ऐसा एक काल था, जहा लोग पीड़ित और गुलामी का जीवन व्यतीत कर रहे थे। ईश्वर के नाम से राजा और प्रजा को भय, ब्रह्मांड और स्वर्ग-नरक की बातो का अवडंबर दिखाकर अपना वर्चस्व स्थापित किया था। कर्मकांड की प्रथाए स्थापित की गई थी। राजा और प्रजा धर्म की गुलाम बनी थी। भगवान के पुजारी एंव उच्च वर्ण के लोग अज्ञानी जनता के अंधविश्वास का फायदा उठाकर उनकी लूट करते थे। उन्हे धर्मशास्त्रों का डर दिखाकर कड़े नियमोसे जखड़ लिया था। उस समय गौतम नामक एक युवा योगी आशा का केंद्र बन जाता है। उसे बादमे गौतम बुध्द कहा गया। वही राजपुत्र जिसने “सत्य की खोज” के लिए अपनी निजी संपत्ती और राजऐश्र्वता छोड़ दी थी। वे कभी रुके नहीं। खोज और ज्ञान प्रसारण के लिए चलते रहे 

बुध्द ने सनातनी परंपरा, दैववाद और कर्मकांडो के बीच अपने विचार और कृतियोंकों राजा एंव जनता के सामने रखा। बुध्द के भौतिकवादी अर्थ ने ब्रह्मांड के गठन और भगवान के अस्तित्व को नकार दिया। उन्होने आत्मा और पदार्थ के संदर्भ को समझने के लिए कोई दिव्य शक्ति के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं समझी। तथागत बुध्द ईश्वर और अन्य दूसरी दुनिया के अस्तित्व के प्रश्नो पर मौन रहकर उसके अस्तित्व को नकार देते है। यह मौन किसिलिए? बुध्द क्या दर्शाना चाहते थे? बुध्द के विचारोसे अनुमान लगाया जा सकता है की, उनका उद्देश्य अलौकिकता और ईश्वर की मौजूदगी पर अविश्वास करना था। अपने शिष्यों से उनका आग्रह था, ऐसे अनिश्चित सवालो से जुड़े रहना अपने खुद के आत्मशक्ति को प्रताड़ित करना है। बुध्द मानते थे की, ऐसे प्रश्नो से आत्मनिर्भरता की दृढ़ भावना या तो क्षीण होगी या नष्ट हो जाएगी। ईश्वर के भय से मनो का उत्साह निरोत्साह में परिवर्तित होगा। 

बुध्द ने मध्यम मार्ग का सन्देश दिया उन्होंने भगवान के अस्तित्व के खिलाफ कई तर्कों की पेशकश की। बुध्द नास्तिक नहीं थे। वे आस्तिक इसीलिए थे, क्योकि उन्होंने भौतिकता के अस्तित्व को माना। नास्तिक वे है, जो भौतिकता को नकारकर कल्पनाओ के सपनो में वास्तवता खोजते है। जो कल्पना को प्रमाण मानकर उनके अस्तित्व का दावा किसी ठोस सबुत एंव तथ्योंपर नहीं करते। बुध्द को भौतिकवाद का जनक कहा जाता है। “सत्य की खोज” उनके विचारो की देन है। उनकी आस्तिकता भौतिक दर्शन का आयना था।

बुध्द कहते थे, ईश्वर पर विश्वास करना अप्रासंगिक है। बुध्द हमेशा  दु:ख से मुक्ति की व्यावहारिक समस्या पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रयासरत थे और आत्मविश्वासी चर्चाओं पर बल देते थे। उन्होंने व्यावहारिक कार्यक्रम के लिए न्यूनतम सैद्धांतिक आधार तैयार किया था। उनके सिध्दांत में भगवान को कोई स्थान नहीं है। जाहिर है, वे नहीं चाहते थे कि, उनके शिष्य और जनता समय और ऊर्जा की बर्बादी उनके गैर-मौजूदगी पर न करे।
बुध्द का “बहुजन हिताय बहुजन सुखाय” का नारा सर्वपरिचित है।  उन्होने किस स्थिति में यह नारा दिया होगा? उस समय समाज के एक बड़े वर्ग का शोषण करनेवाली संस्था जीवित होगी और बहुसंख्य लोग उनके गुलाम बन गए होंगे। तथागत ने शोषण के इस परिस्थिति के लिए “अविद्या” को दोषी करार दिया। और उस समय के ताकदवर धर्मशास्त्रीय संस्था के खिलाफ शक्तिशाली आंदोलन खड़ा कर बहुजन जनता को मुक्ती का रास्ता दिखाया।

थेरीगाथा में सुनीता नामक महिला कहती है, मैं एक विनम्र परिवार से थी, मैं धर्म का पालन करती थी लेकिन लोग मेरी घृणा करते थे, एक दिन मगध में भिक्षु संघ के साथ बुद्ध जा रहे थे, मैं हिंमत से पीछे से दौड़कर बुध्दा को नमन किया। उन्होने विनम्रता से पूछा और संघ में सामील किया। अब मुझे सन्मान से जीने का अधिकार मिला गया। दूसरी ओर कोसला की एक ब्राम्हन बेटी मुत्ता, बुध्द धर्म अपनाने के बाद कहती है, मैं आज वास्तव में पुनर्जन्म, भय और मृत्यु के विचारोसे मुक्त हुई हु। वही सुमंगलमत्ता कहती है, मैं अब अपने स्वतंत्रता के गीत गा रही हु। मैं सनातनी परंपरा से आजाद हु। मेरे क्रूर पुरुष से भी मैं अच्छे स्थान पर हु। यह बाते बताती है की, उस समय उत्पीड़न की उचाई कितनी लंबी हो गई थी। संसार हृदयहीन हो गया था। बुध्द विचार वास्तव में गहरे अर्थोसे भरे है। इस बुध्द के धर्म ने लोगो के बीच में समता के बीज बोकर उसे बढ़ावा दिया।  

बुध्द ने दु:खो के कारणो की खोज की। उसे जनसामान्य में प्रसारित करने का बिडा उठाया और लोगों को मुक्ति का मार्ग बताया। बुध्द ने दु:ख की जड़ “अविद्या” बताया है जिसे दूर करने में ज्ञान को ही समर्थ बताया। इसके लिए उन्होने चार अलौकिक सत्य बताए है, उसमे  प्रथम है “सब ओर दु:ख है”। किसी भी दु:ख के दूर होने की संभवना तभी है जब हम दु:ख के कारणो की खोज करे। इसीलिए उन्होने द्वितीय सत्य बताया है, वह है “दु:ख के कारण भी है”। उन्होने दु:ख का मुख्य कारण “तृष्णा” को बताया। दु:ख के कारनोकी खोज हो जाने के बाद दु:ख दूर हो जाने की संभावनाए स्वाभाविक बढ़ जाती है। इसीलिए बुध्द ने तीसरा सत्य बताया “दु:ख का नाश हो सकता है”। दु:ख की मुक्ती के लिए बुध्द सुलभ और व्यावहारिक मार्ग बताते है, जिसपर चलकर दु:खो से छुटकारा पा सकते है। इसलिए बुध्द ने चौथा मौलिक सत्य “दु:ख निरोध का अष्टांगिक मार्ग” बताया। इसमे आठ मार्ग है, जैसे सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। इस तरह बुध्द प्रजा को आशान्वित रहने का रास्ता दिखाते है। यही नहीं तथागत त्रिदीक्षा शील, समाधि और प्रज्ञा भी देकर कहते है पाप से मुक्ती शील है, चिंतन की एकाग्रता समाधि है तथा इष्ट और अनिष्ट में समभाव का आवाहन प्रज्ञा। तथागत के इस तत्वो में अनुशीलता और उसपर अंमल दिखाई देता है, जहा ईश्वर का स्थान पूर्णतया शून्य है।
बुध्द की शिक्षा जीवन का सरल मार्ग है। जहा चमत्कार को कोई स्थान नहीं है। बुध्द कहते है मंत्रो से मुक्ती नहीं मिलती। पुजा पाठ करनेसे कोई भी अमीर नहीं बनता और ना ही संकटों से निवारण होता। ईश्वर न होने के प्रमाण आज भी स्थित है। सिर्फ फर्क इतना है की, उसे खुली आखे और शून्य की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। सोचना चाहिए, अगर ईश्वर है तो मंदिरो के भगदड़ में आदमी क्यों कुचले जाते है? ईश्वर के मंदिरो, गिरिजाघरों एंव मस्जिदो  में चोरिया क्यों होती है? भगवान के समक्ष बलात्कार क्यों होता है? अगर भगवान विघ्नहर्ता है, तो लोग विघ्न से क्यों परेशान है? अगर पुजा अर्चना से संपन्नता आती है, तब लोग गरीब और भूखे कंगाल क्यों है? अगर ईश्वर सबको समानता से देखता है तो समाज में द्वेष क्यों है? बुध्द ने एक ब्राह्मण से कहा था, अगर मंत्रो और पुजापाठ में इतनी क्षमता है, तो मैं नदी के इस किनारे बैठा हु, वे मुझे नदी के उस किनारे अपनेआप पहुचा दे। तब वह ब्राह्मण निरुत्तर होकर बुध्द का शिष्य बना।

तथागत गौतम बुध्द के “विचार और उनके बनाये नियम” को “बुध्द का धर्म” कहा जाता है। विश्व के इस प्रथम वैज्ञानिक और व्यवस्थापन गुरु के विचारोकी भारत जैसे देश में कही अधिक जरुरत है। धर्म, कल्पनाओं से भरे धर्मशास्त्रो, भगवान, कर्मकांड, सनातनी परंपरा और शोषण से मुक्ति तथा समता और मानवता के लिए विश्व में बुध्द के विचारोंको अपनाने की अधिक जरुरत है.   

लेखक: बापू राऊत,
मुंबई ,महाराष्ट्र  
9224343464

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