प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मिडियाके माध्यमसे पता चलता है की, मोदी सरकारने मा.
अटलबिहारी बाजपेई, मा.कांशीरामजी और प.मदन मोहन मालवीय को भारतरत्न देने का निर्णय
लिया है. भारतरत्न देश के उन सपुतोको मिलना चाहिए जिन्होंने देश के लिए कुर्बानी
दी है, जिनका कार्य स्वाभिमान और संघर्ष का प्रतिक बन गया हो. उनके कार्योंसे देश
की जनता तथा युवको को प्रेरणा मिली हो. अटलबिहारी बाजपेई का कार्य भाजपा को सत्ता
में लाकर देश का प्रधानमंत्री बनने तक सिमित है. बनारस हिंदू युनिव्हर्सिटी की नीव
रखनेका कार्य प.मदन मोहन मालवीय ने कीया है तथा मा. कांशीराम ने महाराष्ट्र के पूना से सरकारी
नोकरी छोडकर दबे कुचले तथा बहीश्कृत समाज के उत्थान के लिए कार्य किया, उन्हे स्वाभिमान की ज्योत जगाकर राजकीय सत्ता हथीयाने
का मन्त्र दिया. उत्तर प्रदेश में सरकार स्थापित करने के बाद भी उन्होंने सत्ता का
लाभ कभी नहीं लिया था.
वैसे भारत में आजकल किसी को भी पुरस्कार मिल जाते है. सिर्फ उनकी योग्यता होनी
चाहिए की वह, सत्ताधारी पार्टी से सबंधित
हो, उसका सबंध पार्टी के विचारधारा से मिलाता हो तथा वह किसी राजनैतिक सत्ताधारी योके
गलियारो से नाते सबंध में हो. तभी तो यहाँ देश का एक महान हाकी खिलाडी ध्यानचंद को
बहुतांश जनता की मांग होने पर उन्हें भारतरत्न नवाजा नहीं जाता.
देश की स्वतंत्रता, समाज की सभ्यता के लिए जिन्होंने कुर्बानी दी है उनमे
क्रांतिकारी बिरसा मुंडा का नाम काफी ऊपर है. उनका कार्य नेताजी सुभाषचन्द्र बोस या
म. गांधी से कम नहीं था. बिरसा मुंडा का कार्य उचे स्वर का था. बिरसा मुंडा एक
आदिवासी जमात के होने के कारण देश के इतिहासकारोने तथा मनुवादी मिडिया ने उन्हें
कभी प्रसिध्दी नहीं दी. उनके कार्य को कभी उजागर नहीं किया. बल्की इस देश के मनसबदारी
मानसिकता के लोगो ने उनका हमेशा हनन किया है.
आदिवासी बिरसा मुंडा को अपना भगवान मानते है. उन्होंने आदिवासी समाज के युवको
तथा सभी महिला और पुरुषों को पारंपारिक अंधविश्वास से मुक्त किया तथा उनमे
स्वाभिमान की भावना पैदा की थी. बिरसा मुंडा जीवनकार्य बड़ा संघर्षमय रहा है. बिरसा
मुंडा ने ही भारत को आजादी की विचारधारा दी है. ख्याल रहे की भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस की स्थापणा भारत को आजादी वा स्वतंत्रता देने के लिए नहीं हुई थी बल्की
राजाओ, जमीनदारो और सुभेदारो को अंग्रेज शासन से ज्यादा से ज्यादा अधिकार दिलवाने
के लिए हुई थी.
अंग्रेजो के आने से पहले तक सुदूर जंगलो में ये आदिवासी सामूहिक खेती करते थे.
सब जमींन गाव की होती थी, किसी व्यक्ती की नहीं. अंग्रेजो के साथ झारखंड में बिरसा
की लड़ाई इसी बात को लेकर हुई थी की जमींन जमीनदारो, साहुकारो या व्यक्तियों के नाम
नहीं, बल्की गाव के नाम रहे, जैसे पहले आदिवासी समाज व्यवस्था में चल रहा था. लेकिन
अंग्रेज माने नहीं, उनको आदिवासियोकी जल, जंगल जमींन और खनिजों को लुटना था. स्वाभीमानी
बिरसा को यह आदिवासियोपर हमला लग रहा था.
अंग्रेज सरकारने आदिवासियोकी को जंगलो से अलग करके उनकी पारंपारिक आजीविका छीन
ली थी. आदिवासी भूखे मरने लगे थे. उनकी हालत बद से बदतर हो गयी थी. अंग्रेजो के
साथ साथ जमीनदारो और साहुकारोने आदिवासियोपर बुरे जुल्म किये थे. खेती में बहुत कम
दामो पर उनसे काम करवा लेते थे. कभी कभी तो उन्हें दाम भी नहीं मिलता था. जमीनदार
तथा साहूकार आदिवासियोकी बहु बेटियों के इज्ज्तसे भी खिलवाड करते थे. बिरसा मुंडा
यह अत्याचार देखता था, उनके मन में आक्रोश पैदा होता था.
बिरसा ईसाई तथा हिंदू धर्म की कमी को
समझते हुए एक निर्णय पे आ गया था. आदिवासीयोका मनोबल गिरने का कारण उनका अत्याधिक
गरीब तथा अनपढ़ होना था.बिरसा मुंडा ने अपना जीवनकार्य बड़ी नैतिकता से चालु किया
था. उनमे स्वाभिमान और राष्ट्र प्रेम भरा हुवा था. बिरसा के इस स्वभाव के कारण
आदिवासी उनको अपना आदर्श मानते थे. बिरसा कहते थे, अपने अधिकारों के लिए हमें
स्वंय लढना होगा. हम किसी से कमजोर नहीं है. हम उतने ही बलिष्ठ है जितने अंग्रेज,
जमीनदार और साहूकार. हमें सत्य की जमीनपर पैर टिककर इनके सामने तनकर खड़ा होकर अपने
अधिकारों के लिए लढना होगा. अपनी कम आयु में ही उन्होंने आदिवासियोमे अपनी हक की
लड़ाई लढने के लिए तैयार किया था. बिरसा
अंग्रेजो तथा जमीनदारो के लिए एक चुनोती बन गए थे.
आदिवासी के साहस का प्रतिक था तीरकमटा. तिरकमटो से अंग्रेजो के साथ लढते थे. उनको
ख्रिश्चन मिशनरियों के साथ भी लढना पड़ रहा था क्योकि वे आदिवासीयो को लोभ /प्रलोभन
तथा जबरदस्ती से ख्रिश्चन बना रहे थे. भारत में ईसाई मिशन की कमर तोडने वाला पहिला
भारतीय बिरसा मुंडा ही था. बिरसा ने अपने लोगो से कहा था, जमीनदार और साहुकार
हमारे शत्रु है परन्तु अंग्रेजो की सरकार हमारी सबसे बड़ी दुश्मन है. हम उसे उखाड
फेकेंगे और स्वतन्त्र मुंडा राज की स्थापना करेंगे. वे कहते थे, अंग्रेजो की सरकार
चले जाने के बाद राजा, जमीनदार, ठेकेदार, महाजन और हकिमोके शोषण का अंत निश्चित
है. बिरसा मुंडा कभी भी लालच में आकर किसी के शरण नहीं गए. स्वाभिमान और अस्मिता
उनके रगों में भरी थी.
अंग्रेजो द्वारा लागू की गयी नई राजस्व व्यवस्था, जमीनदारी, ठेकेदारी,
जंगल-जमीं के हक तथा महाजनो के खिलाफ १८९५ से १९०० तक बिरसा मुंडा का उलगलान चला
था. आदिवासी अस्मिता, स्वायत्ता तथा संस्कृति के रक्षार्थ अंग्रेजो के विरुध्द
मुक्तिकामी राजनैतिक एंव वर्गीय क्रांति थी. अंग्रेज सरकारने बिरसा मुंडा की
गिरफ्तारी के लिए ५०० रुपये का इनाम रखा था. बदगाव का जमीनदार जगमोहन सिह बिरसा का
कट्टर दुश्मन था. पैसो की लालच में उसने बिरसा को हर हालत में गिरफ्तार करने का मन
बना लिया था. ३ मार्च १९०० को जगमोहन और उनके आदमियों ने बिरसा को पकडकर अंग्रेजो
के हवाले किया. अंग्रेज सरकार ने उनके खिलाफ अनेक आरोप लगाए. उस दौरान स्वतंत्रतका
आंदोलन भी जोर पकड़ रहा था. यूरोप से अनेक भारतीय कानून पढकर भारत लौटे थे. अनेक
वकील न्यायपालिका में कार्यरत थे लेकिन किसी भी भारतीय वकील ने उनका वकील पत्र
नहीं लिया. जमींनदार और साहूकार तो बिरसा को फासीपर लटकता हुवा देखना चाहते थे.
उन्होंने बिरसा को अपनी प्रजा का अंग नहीं समझा था. उनको लगता था बिरसा उनके मार्ग
का काटा है, उसे काटनाही पड़ेगा.
भारत का दुर्भाग्य था की संपन्न और शक्तिशाली लोगो ने अपने निजी स्वार्थ के
लिए अंग्रेजो से हाथ मिला लिए थे और कमजोर, बेबस, शोषित लोगो को मुक्ति दिलाने के
बजाय अंग्रेजो के साथ खड़े हो गए. अंग्रेज प्रशासन ने बिरसा को जेल में ही मारने की
पूरी तैयारी की थी. उन्हें राजनैतिक कैदी नही माना गया था. अंग्रेज नहीं चाहते थे
की उन्हें राजनीतिक दर्जा देकर समाज के दबे कुचले लोगो में क्रांती के बिज पैदा
हो. जेल में उनपर अनेक जुल्म किए गए थे. आखिर जेल में ही ९ जून १९०० मे उनका देहांत हो गया.
बिरसा का आंदोलन केवल अंग्रेजो के ही खिलाफ नहीं था तो भारत की परंपरावादी
धार्मिक शोषण व्यवस्था के विरोध में उनकी जंग थी. बिरसा ने जो किया वह केवल
आदिवासी केंद्रित नहीं था, वह पुरे भारत के लिए महत्वपूर्ण था बिरसा का आंदोलन कोई
मामूली आंदोलन नहीं था. भारत के इतिहास का वह महत्वपूर्ण आंदोलन था. तो क्या बिरसा
मुंडा के इस योगदान को सरकारने / मुख्यधारा के लोगोने कभी याद करके पुरस्कृत किया? बिरसा मुंडा को अबतक
भारतरत्न क्यों नहीं दिया गया?
आजतक भारत में जिन लोगो को भारतरत्न से नवाजा गया, उन लोगो के कद से बिरसा
मुंडा क्या कम आके जा सकते है? कदापि नहीं. मगर गरीब, बहिष्कृत समाज के नायको,
क्रांतिकारियों तथा समाजसुधारको को देश की मुख्यधारा का अंग नहीं समझा जाता. उची /
सवर्ण जाती के झिरो लोगो को हीरो बनाकर भारतरत्न दिया जाता है. उनका इतिहास लिखा
जाता है, उन्हें प्रसिद्धी मिलती है. लेकिन गरीब आदिवासी समाज के महानायको के कार्योको
महत्त्व नहीं दिया जाता. मांग करनेसे भी कुछ नहीं मिलता. यह आज के भारत की चापलूसगिरी
व्यवस्था की हकिगत है. क्या यह सच कोई ठुकरा सकता है? भारत की तथाकथित मुख्य धारा
के स्थापित लोगो ने गरिबोको तथा आदिवासियोको विस्थापित ही नहीं किया, बल्की उन्हें
मौन रहने को मजबूर कर दिया. चुप रहो, बस सुनो, बोलो मत, बोलोगे तो मारे जाओगे.
बापू राउत
९२२४३४३४६४
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