इत्सिंग एंव ह्यू
एनत्संग जैसे विश्वविख्यात प्रवासी विद्वानोने अश्वघोष के विद्वता के प्रशंसक रहे है। सँम्युअल बिल ने सबसे
पहले अश्वघोष पर अनुसंधान किया। उन्होने वर्ष 1883 में अश्वघोष पर चीनी भाषा में लिखे साहित्यका अनुवाद
किया। अश्वघोष कृत बुध्दचरित्र का वह पहला अनुवाद था। बोथलिंग ने भी अश्वघोष पर अध्ययन
किया। अश्वघोष साकेत (अयोध्या) के निवासी थे। वे महान तार्किक, दार्शनिक, कवि और विद्वान थे। अश्वघोषको संस्कृत
नाटक के जनक और कालिदास (5 वीं शताब्दी) से बड़ा कवि माना जाता है। उन्होंने काव्य
के रूपमें संस्कृत कविता की शैली को लोकप्रिय बनाया।
कुषाणनरेश कनिष्क के दरबारमें वे धर्मगुरु के रूप में स्थापित थे। कनिष्क का समय ई.स.78-101 है। इनके शासन काल में काश्मीर के कुण्डवन में चौथी बौध्द धम्मसंगीती हुई थी। इस संगीति के अश्वघोष उपाध्यक्ष थे। अश्वघोषने बुध्द के चरित्र को संस्कृत में लिखना शुरू किया। उन्होने बौद्धधर्म के अंतर्गत महायान को विकसित किया। चीनी परंपरा चरक को कुषाणनरेश कनिष्क का चिकित्सा गुरु और अश्वघोष को उनका धर्मगुरु मानती है।
इतिहास रिसर्चर म.म.मिराशी लिखते है की, कालीदासने अश्वघोष के साहित्यके कुछ दोष छोड़कर उनके काव्योकी अच्छी बाते
लेकर अपनी रचनाओको विकसित किया। डॉ. जॉन्स्टन और प्रो. कॉवेल ने भी इसकी पुष्टि की
है। डॉ. कीथ ने तो यहातक कहा की, अश्वघोष की कृतियोंका इस्तेमाल
कवि भास ने अपने साहित्य में किया। अश्वघोष अपने काल के बड़े रंगभूमिकार एंव नाटककार
थे। चीनी प्रवासि वर्णन करते हुए कहते है, ‘उनका एक संगीत
मण्डल था। वे राजाओंके दरबार, रोडपर, बाजारोमे अपने मधुर संगीत शैली से लोगोंकों आकर्षित करते थे। इसी माध्यम
से वे बौध्द धम्म का प्रचार एंव प्रसार करते थे। सियूकी कहते है, Ashavaghosha
preached so eloquently that the entire congregation was moved to tears’ उनके प्रवचन सुनकर लोगोंके आखो से आसू आ जाते थे।
अश्वघोष की साहित्य रचना: कवि अश्वघोष
ने बुध्दचरित और सौंदरनन्द जैसे महाकाव्य का निर्माण किया। इसके साथ उन्होने महायान
श्रद्धोंत्पादसंग्रह, वज्रसूची, सारिपुत्तचरित, सूत्रालंकार और गण्डिस्त्रोत्र
गाथा जैसे ग्रंथोंकी रचना की। उन्होने बौध्द धर्म के तत्वज्ञान और विचार सामान्य लोगोंकों
समझने के लिए जातककथा के रूप में पेश किया। महायान श्रद्धोंत्पादसंग्रह के बारे में ह्यूएत्संगने
चर्चा की है। यह ग्रंथ चीनी भाषा में उपलब्ध्द है। इस ग्रंथ का इ.स. 534 एंव इ.स. 710
में दो बार चीनी भाषा में भाषांतरण हुवा। जापानी विद्वान टी. सुजुकी ने भी इस ग्रंथ को भाषांतरित किया है। जपानी शिक्षाक्रम में इस ग्रंथ
अंतर्भाव है। सारीपुत्त प्रकरण यह भारतीय
इतिहास की प्रथम नौ अंकवाली नाट्य प्रयोगिका थी। इसमे सारिपुत्त एंव महामोग्गलायन के
बौध्द धम्म को स्वीकार करने के प्रसंग का चित्रण किया है। कीथ ने इसे गणिकारूपक कहा। ल्यूडर्स लिखते है, As a
dramatist Ashvaghosha was a worthy predecersar
of Kalidas. अश्वघोष के बुध्दचरित
में बुध्द के जीवनी को प्रतिबद्धित किया है। इ.स. 414
से 421 तक इसका चीनी भाषा में भाषांतर किया गया। अश्वघोष के बुध्दचरित का विश्व की
अनेक भाषाओमे भाषांतर हुवा है। इत्सिंग ने लिखा है, इस ग्रंथ को उस समय भारत के सिवा जावा और सुमात्रा में पढ़ा और गाया जाता
था। अश्वघोष का साहित्य धर्म तत्वाज्ञान,
काव्य और कथा का संगम है।उनका सौन्दरनन्द यह काव्यग्रंथ यौवन, प्रेम और धर्मप्रवणता
का मिलाप है। जिस तरह से जलतरण के लहरोपर राजहंस
आगे भी नहीं जाता और पिछे भी जाते नहीं दिखता।
एक ही जगहपर वह डुलते हुए स्थिर दिखता है। उसी तरह से सौन्दरनन्द में नंद के पत्नीप्रेम
और धर्मप्रेम को अस्थाई और स्थिर रूप में नहीं दिखाया। अश्वघोष की यह अचल रचना थी।
अश्वघोष बौध्द धर्म के सिध्दांत को परिभाषित करते हुए कहते है, ‘जिस तरह ऑइल(तेल) खत्म होने के बादही दीप स्वंय को जलना बंद कर देता है, उसकी शलाका धरती, अन्तरिक्ष एंव किसी भी क्षेत्र को प्रज्वलित नहीं कर सकती, उसी तरह से मनुष्य के निर्वाण के बाद वह धरती, अन्तरिक्ष एंव किसी भी क्षेत्रमे न जाकर अपने आप नष्ट हो जाता है। उसी तरह भूतल की हर एक चीज अनित्य, परिवर्तनीय एंव नाशवंत होती है। जो अनित्य नहीं, उसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसे अश्वघोष सरल शब्द में कहते है की, नदी का बहता पानी और मनुष्य का यौवन कभी भी लौटकर नहीं आता उसी तरह निर्वाण का हश्र होता है। बौध्द धर्म का यही मूलज्ञान है।
अश्वघोष के वज्रसूची ग्रंथ को वज्रसूचीकोपनिषद भी कहा
जाता है। उन्होने वज्रसूची में वर्णव्यवस्था तथा विषमतावादी सामाजिक रचना पर घोर टिप्पणी
की है। बी. एच. हॉडसन एंव एल. विल्किसन ने 1839 में वज्रसूची का संपादन किया। अश्वघोषने
जन्म के आधारपर चलनेवाले चातुर्वर्ण्यव्यवस्था पर कठोर आघात कर मानव जातिके कल्याणप्रद
समतावादी व्यवस्थापर बल दिया। वे कहते है, जीवन-मरण, सुख-दु:ख, हानी-लाभ आदि
सब प्राणी या मानव के लिए समान होता है। फिर किसी को समानता के अधिकार से वंचित करना!
ये कैसा बुध्दीचातुर्य ? वे कहते है की, मानवता ही श्रेष्ठ है। तर्क कुशलता पर उन्होने बल दिया है।
लेखक: बापू राऊत
Jai Bhim Jai Jyoti
ReplyDeleteNice information
Thanks sir, Jaibhim Jaijyoti, Jai Sanvidhaan
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