युध्द के मैदान में
आदिलशहा, निजामशहा और औरंगजेब कों शिवाजी महाराज ने परस्त देकर बड़ी मेहनत से अपना
साम्राज्य खड़ा किया था। उनके साम्राज्य
में हर धर्म और जाती के लोगो कों धार्मिक स्वातंत्र्यता थी। समानता और बंधुता
का वो उच्चतम दौर था। लेकिन जब उनके
वंशजो का राजपाट कूटनीतियो द्वारा पेशवाओने हड़प लिया, तब पेशवाओने “सामाजिक संतुलनका” बली दे दिया। बैकवर्ड समाजपर सामाजिक
तथा धार्मिक बंधन लगाकर अत्याचार किया जाने लगा। समझो, मानवता की
साख पूर्णत: गिर चुकी थी। अत्यंज वर्ग के
स्पर्श कों पाप समझा गया। उनकी छाया तक किसी
ब्राम्हणपर नहीं पडनी चाहिए इसीलिए उनपर मुख्य रास्ता छोडकर केवल दुपहर कों घर से
बाहर आने की इजाजद दी गई थी। अत्याचारों ने
परिसीमा की हद पार कर दी थी। ब्राम्हण पंडोने
ब्रिटिशोंको हमारे धार्मिक एंव सामाजिक कार्यकलाप में किसी भी प्रकारका हस्तक्षेप या
बदलाव न करनेका इशारा दिया था। जैसे की अत्याचार
करना उनका अधिकार बन गया हो। लेकिन इस सामजिक
अन्याय और अपमान का हिसाब किताब एक दिन लेना ही था। सन 1 जानेवारी 1818 कों महार
सैनिकोंको वह संधि मिल गई। उस दिन इंग्रज और बाजीराव
पेशवा इनके बिच में भिमा कोरेगाव में युध्द होने जा रहा था। इस जंग में अपने
अत्याचारो और अपमान का बदला लेने के लिए महारोने पेशवा के खिलाफ लढने का फैसला
लिया। भीमा कोरेगाव के इस लढाई में 500 महार सामिल हुए थे। उन्होंने पेशवाओके
28,000 सैनिकोंको हराकर पेशवा के राज्य कों नेस्तनाबूत कर दिया। इस युध्द में 22 महार सैनिक शहीद
हो गए थे। इस सैनिकोंकी स्मृती और सन्मान में
ब्रिटीशोने भीमा कोरेगाव में एक स्तंभ बनाया। जिसे भीमा कोरेगाव
का शौर्यस्तंभ कहा जाता है। डाक्टर बाबासाहब
आंबेडकर इस योध्दाओंको सलामी देने के लिए हरसाल 1 जनवरी कों भीमाकोरेगाव
जाकर शौर्यस्तंभ कों सलाम करते थे। आज के दिन लाखो
लोग इन योध्दोंओको सलामी देने के लिए भीमा कोरेगाव में इकठ्ठा होते है। इस स्तंभ कों “अत्याचार
और अपमान पर विजय के प्रतिक” के रूप में देखा जाना चाहिए।
लेखक: बापू राऊत
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