भारत में ऐसा कोई नागरिक नहीं होगा जो रामविलास पासवानजी को न जानता हो। उन्होने अपने जीवन में सामाजिक और राजनीति की लंबी पारी खेली है। भारत में सबसे ज्यादा वोट के अंतराल से जीतनेवाले सांसद (1977) का रेकार्ड उनके नाम पर है। इतनाही नहीं छ: प्रधानमंत्री के साथ काम करने का अनूठा रेकार्ड भी उन्ही के नाम पर है। 1970-90 के दशक में जिन नेताओने राजनीति के मुख्य प्रवाह में सामाजिक न्याय का एजंडा लाने का काम किया, उन नेताओमे रामविलास पासवान का नाम शीर्षपर है । भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रतापसिंग के मंत्रिमंडलका चर्चित चेहरा थे रामविलास पासवान जी। मंडल आयोग और अनु जाती/जनजाति अत्याचार प्रतिबंध का कानून पर योगदान के लिए उन्हे सामाजिक न्याय का मसीहा भी कहा जाने लगा था।
समाजवादी आंदोलन से उभरे रामविलास पासवानजी बिहार के प्रमुख नेता के तौर उभरकर राष्ट्रीय राजनीतिमे अपनी विशेष जगह बना ली थी। 1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करवाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही थी। वे वंचित वर्ग की आवाज बन गए थे। राम मनोहर लोहिया, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और महात्मा ज्योतिराव फुले के विचारोंकों अंमल करने की बात उनके भाषणोमे दिखाई देती थी। बाबासाहब के विचारोके चलते वे गांधी के हरिजन विरोधी बन गए। लेकिन इन अपने आदर्शोकों माननेवाले पासवान क्या आखिरतक अपने महापुरुषोके विचारोपर अटल रहे? पुरानमतवाद, वर्णवाद, हिंदुत्व, जातीसमर्थक एंव सामंतीवादी विचारोंकी जननी राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के विचारधारा को अंमल करनेवाली भाजपा के साथ गठजोड़ करना, उनके अवसरवादी होने का समयसूचक था। तो, क्या उन्होने दलित, आंबेडकर व समाज के नामो एंव कामों के अवसर को अपने स्वार्थी अवसरवाद में बदल नहीं दिया? बेशक वे अवसरवादी बन गए थे।
बाबासाहेब आंबेडकर के “सेवक (गुलाम) नहीं, शासक बनो”
इन तत्वो के खिलाफ पासवानजी का राजनीतिक व्यवहार था। अगर ऐसा उनका राजनीतिक व्यव्हार
था, तो फिर उन्हे आंबेडकरवादी नेता कैसे कहा जा सकता ? यह सवाल रामदास आठवले के लिए भी है। कल, बंद कमरे में
रहकर राजनीति करनेवाले नेताओपर भी सवाल उठ सकते है। इन नेताओंका अवसरवादी बनना और उनके
आर्थिक सेन्सेक्स की उचाई गाठना इनके लिए हर्ष (आनंद) का समय हो सकता है, लेकिन वह करोड़ो दलितोंके साथ किया गया धोका ही है। क्योंकि उनका अवसरवाद उन्हे
दलितोंके अत्याचारों पर चुप (खामोश) रहना सिखाता है। दलितोंकी मांगे उन्हे अपनी नहीं
लगती। संसद में वे दलितोंके प्रतिनिधि के रूप में अन्याय के खिलाफ और उनके विकास पर
सवाल करने के बजाय केवल बैठे रहते है। कुछ सांसद केवल हसाने और मनोरंजन करने के लिए
खड़े होते है । उन्हे ना क्रांतिवीर कह सकते, ना विचारोंके प्रति
शहीद!
रामविलास पासवानजी का उत्तरकाल कुछ ऐसा
ही था। उनके लिए आंबेडकर और दलित केवल एक वोट की राजनीति बन गई थी। दलितोंके खिलाफ
कोर्ट से आए आदेश हो, संविधान पर हमला हो, सरकारी
नीतिया हो या उन्नाव जैसी लिंचिंग हो। दलितोपर अत्याचार होते देखते हुए भी वे खामोश
थे। पासवान जी मा. कांशीरामजी के समकालीन रहे, सत्ता में सदा
रहे लेकिन आंबेड़करवादी होने की मान्यता वे सामाजिक कार्यकर्ताओ एंव बुध्दिजीवीयोमे
प्राप्त नहीं कर सके। शायद, अपने तत्वो के खिलाफ उच्चतम विरोधी
विचारोंके सत्तामे बने रहने का अवसरवाद इसका कारण रहा होगा। लेकिन उनके खगड़िया जिले
के शबनमनी गाव से शुरू हुई संघर्ष की जीवनीने उनके चरित्र को राष्ट्रीय पहचान बनाया
यह सत्य है। भारत के लोग उनके इस संघर्ष को हमेशा याद रखेंगे।
लेखक: बापू राऊत
I agree with you. He was a opportunist and amvedkarite
ReplyDeleteThanks for comments. He was opportunistic politician
Deleteअवसर वादी नेताओं कों अवसर वादी लोग ही याद करते हैं! अब जग्जीवन राम को भी कौन याद करता हैं! ऐसे लोगों का अच्छा चरित्र,कार्य लोगों क़े लिये प्रेरणा बने और अवसरवादी भूमिका सदियौ तक दफन रहें.. इनकी हड्डिया गलने क़े बाद भी। नकारात्मक उदाहरण बने रहें पुरे आंदोलित समाज क़े लिये।
ReplyDeleteइनके आंदोलन कीं शूरूवात कर्पुरी ठाकूर का झोला पकडने से शुरू हुयी ...मतलब शूरूवात ही गलत.. मनुवादी खेमे कें लोगों नें उन्हे समाज कें नेता कीं तरह उन्हे हमारे बिच परोसा और समस्याऔंसे घिरे समाज नें उसे अपने लडनेवाले सीपाही कीं कें रूप में मान्यता दी ,यही पर गलती हों गयी। गलत खेमे से आनेवालों कों नकारणा आना चाहिये और आंदोलन से निर्माण सच्चे प्रतिनिधीकों पहेचानना सिखना होगा।
धन्यवाद साहब। इन नेताओ ने मिले हुए अवसर को समाज के हित के लिए कभी नहीं किया। इसलिए वे समाज के सच्चे नेता नहीं बन पाए।
Deleteबिहार में जितने भी आज तक दलित के नेता हो गये, बाबू जगजीवनराम से लेकर मीरा कुमारी रामविलास पासवान और अभी तक के भी कुछ नेता जो खुद को दलित ओके नेता तो कहते है |लेकिन दलीतो के लिये घटनात्मक जब काम करने का समय आता है तभी चुप रहते है इसलिये ऐसे लोगो को अवसर वादी बोलना ही सही है|
ReplyDeleteधन्यवाद साहेब। इन नेताओने खुद के स्वार्थ के सिवा समाज का भला कभी भी भला नहीं किया। संसद मे उन्होने दलितोंके अत्याचारो पर चुप बैठना पसंद किया। मिरा कुमार अभीतक अपने लाइफ मे दलितोंके विकास और अत्याचार पर आवाज नहीं उठाई।
Deleteहम ही है जो अवसर देकर अवसरवादी नेता का रूप बनाते है, इन्हे समाज की सेवा से कुछ लेना देना नहीं है, पर हैं अब इसे बदल सकते है, हमारे पास ही अवसर है दुबारा किसी भी नेता को अवसर देना है तो उसे ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाहिए उसे सेवक का रूप ही देना मुनासिब है, दोबारा अवसर नहीं देना
ReplyDeleteरिमार्क के लिए धन्यवाद सर।
Deleteधन्यवाद राऊतजी,इन स्वार्थी लोगों ने डा,बाबासाहब की movement को मिटटी में मिला दिया
ReplyDeleteसर आपण अगदि बरोबर लिहले, आज आमचे नेते दलित म्हणुन सत्ताधारी झालेत, अपार पैसा, प्रसिद्धि ,मिळविली, परन्तु शेवटि सर्वण म्हणवुन घेणार्याचे चे भिकारिच झाले, याना आपल्या समाजा प्रती कोणतीही सवेदनशिलता राहलिच नाहि , त्याचे आदौलने सुध्दा स्वार्थाने भरलेली व दिशाहिन असतात, अन्याया विरुध्द ,बोलण्याची, याच्यात धमकच नाहि, हे हातरस च्या प्रकरणवरुन, , तसेच खैरलाजि च्या प्रकरणावरून स्पष्ट झाले आहे , आतातरि मायबाप जणतेने जागे होणे आवश्य आहे
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