Monday, March 2, 2015

लालच के चंगुल में फसे है आंबेडकरवादी !


बाबासाहबने साफ़ कहा था की शोषितों तथा उत्पीडितो की राजनैतिक शक्तिको लगातार सामाजिक आंदोलनोका हिस्सा बनना चाहिए. इससे वंचितोंकी सामाजिकी में बदलाव तो आता ही है, उनकी राजनैतिक चेतना का भी विस्तार होता है. लेकिन सामाजिक आंदोलन करना हम आंबेडकरवादी भूल गए और आज राजनितिक गुटो में ऐसे बट गए, जहा हमारा पूरा सम्मान दाव पे लग गया है.
डाक्टर बाबासाहब आंबेडकर के नितियोपर चलनेवाले लोगोंको मुख्यतया आंबेडकरवादी कहा जाता है. आंबेडकरवादी बनने लिए किसी जात विशेष का होना कोई जरुरी नहीं. भारत के अनेक लोग
लेनिनवादी, मार्क्सवादी तथा माओवादी है. भारत के ये लोग लेनिन, माओ तथा मार्क्स के कौनसे बिरादरीके है?. लेकिन वे उनके विचारोकी सामाजिक, आर्थिक तथा राजकीय व्यवस्था स्थापित करना चाहते है. वे उसके लिए काम कर रहे है. कोई साथ आये या न आये. कोई पूछे या न पूछे. लेकिन यह स्पष्ट है की, इन विचारधाराओ का नेतृत्व उची जाती का ही रहा है. वे इस देश के मूल सामाजिक तथा धार्मिक ढाचे को  नेस्तनाबूत नहीं करना चाहते. उन्होने वर्गभेद स्थापित किया. लेकिन भारतके कामगार और उनके मालिक जातीव्यवस्था को माननेवाले है, जबतक कामागारो मे व्यस्त जातीवाद खत्म नही होता तबतक कामगारोमे एकता प्रस्थापित नही हो सकती. भारत मे कम्युनिझम पराजित हो गया क्योकि यहा के उचि जातीवाले काम्युनिस्टोने प्रथम जातीविनाश की भूमिका न लेकर वर्गसंघर्ष  को आगे बढाया. “पश्चिम बंगाल” को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है.  
आंबेडकरवाद क्या है? कौण है आंबेडकरवादी? डाक्टर आंबेडकर की समग्र लेखन सामग्री तथा उनके सारे भाषण क्या आंबेडकरवाद है? हा! इस सोच के अधिकतर लोग मिलेंगे. लेखक की भी यही सोच है लेकिन वह वक्त के साथ उसमे बदलाव भी चाहता है. वे बदलाव कूटनीतिक तौरपर हो. लाखो लोग इस सोच के मिलेंगे. सामाजिक, आर्थिक, राजकीय बदलाव लाने के लिए तत्वोके कट्टरवादिता की जरुरत होती है. व्यवस्था मे बदलाव आ सकता है. लेकिन यह निर्भर होता वे उसे कैसे डिलीवर करते है. देश में फुले –आंबेडकरवाद डिलीवर नही हो पा रहा है. इसका कारण यह है की, खुद को आंबेडकरवादी कहनेवाले लोग एक नही है. जो लोग आंबेडकरवाद पर एक नही हो सकते, क्या उन्हे आंबेडकरवादी कहा जा सकता है? आंबेडकरवादी लोग भाषणों में प्राचीन काल में वैशाली के लीच्छवी लोग क्यो पराभूत हुए? इसका उदाहरण देते कभी थकते नही, लेकिन यही भाषणबाज लोग खुद उसका पालन नही करते. इस दोगली नीती के कारण यहा आंबेडकरवाद डिलीवर नही हो रहा. इसके अन्य भी कारण है.
आंबेडकरवादी जम्मू काश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले हुए है. लेकिन कहासे भी रिज़ल्ट नहीं है. मान्यवर कांशीरामजी कुछ हदतक सफल हुए. डाक्टर आंबेडकर के बाद वे ऐसे एक नेता थे जिनके लिए लोग मरने तक, अपने घरदार छोडने तक, अपनी पूरी तनखा देने तक तैयार रहते थे. काशिरामजीने बाबासाहब के बाद देश के पिछडोमे स्वाभिमान जागृत किया. उत्तर प्रदेश में सत्ता लाई. उन्होने सम्राट अशोक के भारत का सपना देखा था. लेकिन उनके महापरीनिर्वाण के बाद उनका उत्तराधिकारी सफल नहीं हो रहा? क्योकी उत्तराधिकारी कभी घरके बाहर निकलता ही नहीं. शायद दिल्ली तथा लखनौ के बाहरकी दुनिया उसे पसंद नहीं है. सपना तो प्रधानमंत्री का है., लोगो से मिलेंगे, उनके सुखदु:ख मे सामील होंगे तभी तो लोग साथ देंगे. लेकिन नही, आपने कांशीराम के सपनोको धाराशाई कर दिया. यहाँ तक की पार्टी की राष्ट्रीय मान्यता भी चली गई. कौण है इसका जिम्मेदार? जिम्मेदारी तो लेनी होगी.
समाज में सूट पहनने वाले नेता और कार्यकर्ता तो बहोत पैदा हो रहे है. कही जमींन से जुड़े कार्यकर्ता नेता बन रहे तो कही से श्रेणी एक या दो के कर्मचारी नेता बनके घूम रहे. नेता बनके लिए पाहिले खुद को चमकाना पड़ता है. इस चक्कर में कु नेता सामाजिक और धार्मिक कार्य में लगे है. कोई पाच हजार से पचास हजार लोगोको जमा करके धर्मांतरण का कार्यक्रम आयोजित करता है. तो कही बड़े बड़े चर्चासत्र आयोजित करते है. किसी मागास की जब हत्या होती है तब बढ़चढकर मोर्चा निकालते है. मकसद होता है सिर्फ अपना नाम चमकाना. नाम चमकने तक विचारधारा सिर्फ मायने रखती है. चमकने के बाद मात्र उन्हें नगरसेवक, आमदार, खासदारोके पद के सपने दिखाई देते है. फिर वे विपरीत विचारधारा के कमल के फुलपर, पंजापर, धनुष्य बाण पर डोरे डालना सुरु कर देते है. चमकने तक वे आर.एस.एस को कोसते है, बादमे वे भागवत के पैर छूने रेशिमबाग़ के मुख्यालय पर पहुच जाते है. संघ के कवायत में सामिल होने के लिए हाफ चड्डी पहनेके लिए भी उन्हें शर्मतक नहीं आती.
आंबेडकरवाद की जडे महाराष्ट्र से अधिक जुडी है. लेकिन यहाँ न सामाजिक क्रांति हो रही है, न राजकीय परिवर्तन. यहाँ आंबेडकरवाद का झोला सब लोगोने पहन रखा है. लेकिन फुले-शाहू-आंबेडकर का महाराष्ट्र  कब सावरकर–गोलवळकर का बन गया, इसका पत्ता दाभोळकर और पानसरे जैसे लोगोंकी हत्या होणे के बाद ही चला. यहा रिपब्लिकन पार्टिया अनेक खेमो में बटी हुयी है. इन पार्टियों के कई नेता ऐसे है  जिनकी कोई पहचान नहीं. गल्लियोकी की पार्टी है लेकिन लेबल राष्ट्रीय है. कोई नेतागन ऐसे है जिन्हें बोलना तक नहीं आता. लोग उन्हे जोकर कहते है, लेकिन उन्हे क्या? सिर्फ अपनी दुकान चलनी  चाहिये. विविध विचारो, प्रश्नों तथा उनके गहनता के बारेमे सोचना तो दूर की बात है. रिपब्लिकन पार्टियों को छोड़ बहुजन के नाम पर भी पार्टिया बनाने का दौर शुरू हुवा है. ऐसा क्यों हो रहा है? जब की आंबेडकर साहब उनके अकेले नेता है और उनके विचार इन पार्टियों का आदर्श है. फिर भी ये बटे हुए है. इसके पीछे का कारण क्या है?  क्या लालच तो कारण नहीं? अलग अलग गुटोमे बटे रहनाही इन्हें फायदेमंद तो नहीं? पैसोका, पदोका तथा प्रापर्टी बनाने का चक्कर यह तो कारण नहीं?. संपूर्ण समाज का एक पक्ष तथा एक नेता रहनेसे प्रश्न तो सुलझेंगेही लेकिन नगरसेवक, आमदार, खासदार  बनने की संधियाँ प्राप्त होगी. क्या इतनी साधी और सरल बात इनके समझने में नहीं आती? आती है, लेकिन चक्कर कुछ और है.
नेता नहीं मान रहे तो जनता क्या करेगी? नेता के साथ जनता भी अलग अलग नेताओ के समर्थन मे बटी हुयी है. तभी तो इन नेताओकी दुकानदारी चल रही है. अब नेतोओके साथ साथ जनता भी सयानी हो गयी है, नेता को दरकिनार कर स्थानिक जनता चुनाओ के दिनों में पैसा लेकर व्होट कर रही है. इसका जिम्मेदार कौण है?. अब कहा खो गया भावनाओका अवडंबर? आंबेडकरवाद और बाबासाहब का सपना?. एक समय था पुरा मुहल्ला रिपब्लिकन पार्टी को या हाथी को वोट मारता था. लेकिन आज वे वोट कही के नही रहे. पुरा मुहल्ला कमल, पंजा, घडी, धनुष्यबाण और हाथी मे बट गया है. इस स्थिती मे कौसा आंबेडकर जितेगा? वो तो हारेगा ही. छोटे बच्चे के समझ मे यह बात आती है. फिर यही बात  खुद को आंबेडकरवादी कहनेवालो को क्यो नही समजती? ये आंबेडकरवादी किसको बेवकूफ बना रहे है?
गरीब जनता जखड गयी है. वह रोती है. जातीय विषमता तथा असमानता के प्रश्न तो है ही पर रोजगार के समस्या के साथ साथ शिक्षा, जमींन, पाणी और रहने के लिए घर इत्यादि प्रश्न जीवित है. इनके घरो के ऊपर बुलडोझर चलाकर उन्हें बेसहारा किया जाता है. तब यह नेता कहा होते है? जमींन सरकार हड़प लेती है, महँगी शिक्षा के कारण अगला जनरेशन बेवारस और अशिक्षित बन रहा है, बंधुआ मजदूर बननेके लिए मजबूर किया जा रहा है?. कहा है हमारे नेता जो अपना मुह बंद कर रखा है?. क्या बोलने की हिम्मत ये नेताओमे नहीं है? क्या अकेले रहनेसे डरते है? अगर डर है तो एक क्यों नहीं हो जाते?. उससे हिम्मत आयेगी, आवाज बुलंद होगा. क्या कांग्रेस? क्या भाजपा? क्या शिवसेना? किसके चेहरे है ये सारे? किसका भला चाहती है यह पार्टीया? क्या इनकी सांस्कृतिक विरासत इन नेताओ को पता नही है? फिर भी इनके पिछलग्गु बने है. कोण कहता तुम्हे हमारा नेता? हम तो नही कहते क्योकी तुम्हारे पास नेताजैसा कोईभी गुण नही है. खुद को समाज का नेता कहलाओगे और समाज को फसाओगे तो समाज आपके अंत्ययात्रा में सामील तो होगा लेकिन गाली बहुत देगा. ये याद रखना. मौका है अभी भी, सुधर जावो, एक हो जावो वरना जनता आपको आपकी हैसियत दिखाएगी.   
समाज के ऐसे डरपोक नेताओं के साथ समाज क्यों जुडा रहेगा?. क्या तुम सिर्फ उनके जाती के हो इसीलिए तुमसे जुड़े रहना चाहिए?. जनता आपके साथ है यह आपका भ्रम है. अब जनता ने आपका साथ छोड़ दिया है?. जनता उनके साथ जा रही जो उनके प्रश्नों के लिए आन्दोलन करती है. दिल्ली के पिछड़े समाज के मतदाताओने दिखा दिया है. उसने समाज के पक्ष कहलाने वाले पक्ष को व्होट नहीं दिया. उन्होने अपने प्रश्न उठानेवाले को वोट दिया है. फिर नेता या पार्टी किसी भी जाती की हो. अब उसने भावनाओमे बहना छोड दिया है. महाराष्ट्र में भी यही हालत है., इसीलिए यहा महाराष्ट्र मे आरपीआय के गुटों का और बसपा का कोई भी आमदार या खासदार नहीं बनता. ये इसीलिये हो रहा है की, जनता इन नेताओका चरित्र और चलन देख रही है.
इसीलिए लालच के चंगुल से निकलकर एक होना होगा. समाज को केवल एक नेता और एक पक्ष देना होगा. ऐसा न होने पर एक बात तय है, आप जैसी पार्टिया आपके समाज को अपनी व्होटबैंक बनाएगा. कुछ आंबेडकरी युवा आप के साथ जुड गये है. आंबेडकरी युवक आपके गटतटोसे हैरा है. मुक्ती चाहता है आपके दलालवादी राजकारसे. लेकिन आपको क्या लेनादेना इन सबसे?. 
आज फुले आंबेडकर के विचारोके विरासत को कमजोर करनेका काम राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ कर रहा है. सामाजिक समरसता जैसे कार्यक्रमोद्वारा फुले आंबेडकरवादी बहुजनवादी पिछडोके समूह में सेंध लगाकर संघ अंदर आ चूका है. मनुवादी संस्कृति को बहुजन विचारोके भीतर पैठ बनाने का मौका आंबेडकरवादी नेता ही कर रहे है. इसमें मायावती, उदितराज, रामदास आठवले, रामविलास पासवान जैसे राजनेता तथा अनेक सामाजिक नेता सामिल है. कलतक संघ तथा उनके बजरंग दल को गाली देनेवाले उदितराज टीव्ही चेनलो में घरवापसी का समर्थन कर विश्व हिंदू परिषद का बचाव करहा है. सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाकर मायावतीने मनुवादीयोका बहुजनो के भीतर विस्तार किया है. रामासामी पेरियार के मेले पर बंदी और पार्टी के बेनरोसे उनके फोटो हटाना इन पार्टी का मनुवादियोके के सामने घुटने टेक देना दिखाता है. आठवले की तो बात ही नहीं, उसे ना आंबेडकरवाद की समहै न फुलेवाद की. रामदास आठवले को आंबेडकरी समाज को भाजपा या शिवसेना का वोटर बनाने का बहुत बड़ा ठेका मिला है.
मनुवादी शक्तियोको आंबेडकरवादी नेता ही बल प्राप्त करवा दे रहे है. अगर ऐसा है तो फुले-आंबेडकरवाद की लड़ाई किससे है? फुले-आंबेडकर ने जिस व्यवस्था को खत्म करते झिजते खुद की जान बौछावर कर दी उसी व्यवस्था को बाबासाहब का नाम लेकर बहुजन समाज में घुसपैठ कराने का काम यह तथाकथित आंबेडकरवादी नेता कर रहे है. जीन नेताओ ने आंबेडकरवाद खत्म करनेका क्या जिम्मा ले रखा है, क्या उन्हे फुले-आंबेडकर जैसे नेताओंका नाम लेने का अधिकार बचा है?.
इस समय सारे नेता समाजमें वोटों की भगवा मार्केंटिंग कर रहे हैं. ये नेता जान-बूझ कर समाज को सांप्रदायिकता की आग में झोंक रहे हैं. इतना ही नहीं, वे वर्ण-व्यवस्थावादियों के हाथ भी मजबूत कर रहे हैं. ऐसी परिस्थिति में आंबेडकरी समाज की जिम्मेदारी है कि वे सारे गुटबाज पार्टियों को भंग करने का अभियान चलाएं, सारे सामाजिक गुटोको एक मंचपर लाए और देशभर संघनिती व्यवस्था विरोधी आंदोलन चलाए. देश में “मूलनिवासी” नामक मायक्रो मुव्हमेंट चल रहा है. मनुवादी मिडिया इस मायक्रो मुव्हमेंट को प्रसिध्दी नहीं दे रहा. उसे बल दे. संपूर्ण बहुजन समाज को इस चपेट में ले और ब्राम्हनवादी संघ के सामने आव्हान खड़ा करे. बहुजन जनता को सोचना होगा. वक्त रहते हम समज नहीं सके तो इतिहास हमें सबक सिखा देगा. एक बार हार गए तो हार से उबरना इतना आसान नहीं होता. इसीलिये लालच के चंगुल मे फसे इन तथाकथित आंबेडकरवादियो को सबक सिखाना होगा. आंबेडकरी आंदोलनपर हावी हुए इन इन शासक वर्ग के दलालो को रोकना होगा. नया सबेरा जरुर आएगा लेकिन अपना इगो औ़र स्वार्थ छोडकर समाज के लिए काम करना होगा.


लेखक: बापू राऊत

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