महाराष्ट्र सत्यशोधक मुव्हमेंट का केंद्र रह चुका है। जिसे महात्मा ज्योतिराव फुलेने ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरू किया था। आगे इस आंदोलन को शाहु महाराजने आगे बढ़ाया। लेकिन उनके देहांत के बाद यह आंदोलन कमजोर हुवा। आंदोलन के अनेक नेता काँग्रेस में चले गए। जो नहीं गए वे सक्रिय नहीं रहे। लेकिन फुले और शाहु महाराज के विचार और कार्य को आगे बढ़ाने के प्रयास में एक व्यक्ति आखिरतक कार्यरत था। जिनका नाम है, भाऊराव पाटील।
महाराष्ट्र में भाऊराव पाटील को कर्मवीर कहा जाता है। उन्हे म.ज्योतिराव फुले का सहवास नहीं मिला, लेकिन शाहु महाराज के विचार और कृतियोने उन्हे सत्य की खोज के लिए मजबूर किया। कर्मवीर साहसी, रणनीतिकार और मानवाधिकार के चैम्पियन थे। शाहू महाराज ने वेदोक्त प्रकरणमें ब्राह्मणोंकों धूल चटाई थी। बाल गंगाधर तिलक के ब्राह्मणवाद और पूर्वगौरववाद पर शाहु महाराज ने कहा था, तिलक अगर जर्मनी में पैदा हुवा होता, तो उसे सीधे गोली से मार दिया गया होता। एक बार कर्मवीर पाटील ने देखा की, अछूतों को कुएँ से पानी भरने की अनुमति नहीं दी जा रही है। वे वहां गए, लोगों को समझाया। जैसे ही देखा कि लोग सुन नहीं रहे हैं, उन्होने सीधे कुएँ से पानी निकालनेकी रस्सी काट दी। वही उन्होने, इस्लामपुर के एक स्कूल में अछूत छात्र कक्षा के बाहर बैठा हुवा देखा, उन्हे दर्द हुवा। वे सीधे लड़के को उठाकर घर ले आए। उसे अपने लड़के के साथ रयत शिक्षण संस्था में पढ़ाया। बाद मे वह लड़का महाराष्ट्र विधानसभा सभा मे जानेवाला पहिला अनुसूचित जाती का प्रतिनिधी बना। उसका नाम था ज्ञानदेव घोलप।
कर्मवीर भाऊराव पाटील ने महात्मा फुले के विचारोंको शिरोधार्य माना था। लेकिन महात्मा फुले को माननेवाले
सब सत्यशोधक ऐसे नहीं थे। वे ब्राह्मणोंके खीलाफ थे, लेकिन अछूतोंके
के खिलाफ भी अति जातिवादी थे। उसमे में एक अण्णासाहेब लट्ठे था। वह शाहू महाराज द्वारा निर्मित जैन छात्रावास का सचिव था। एक बार भाऊराव पाटिल अछूतों के लिए एक छात्रावास का
उद्घाटन करने कोल्हापुर गए। जब वह रात को छात्रावास लौटे, तब अण्णा लट्ठे ने उन्हे कहा, आप खाना खाने के पहले
स्नान कर लो। भाऊराव पाटील ने कहा, मैंने सुबह स्नान कर लिया
है और मैं छुवाछुत नहीं मानता। तब लट्ठे ने कहा, फिर आप को खाना नहीं मिलेगा, भूखे रहो। उस रात
कर्मवीर पाटील को भूखा रहना पड़ा। यही अण्णा लट्ठे ब्राह्मणोपर जातिवादी कहकर
प्रहार किया करता था।
शाहू महाराज के
प्रेरणा से कर्मवीर भाऊराव पाटिल ने 1923 में
रयत शिक्षण संस्था की स्थापना की। साथ ही उन्होंने शाहू महाराज के नाम
छात्रावास स्थापित किए थे। उनके संस्थानों और
छात्रावासों में मराठा, माली, कुर्मी, मुस्लिम, जैन, महार, चमार और मांग जैसी
सभी जातियों के छात्र हुआ करते थे। वे शिक्षा से
वंचित बहुजन समाज के लड़कोंकों अपने संस्थान मे पढ़ाना चाहते थे। वे दिखाना चाहते थे कि, केवल चिपलुनकर, तिलक, आगरकर और कर्वे की तरह गैर-ब्राह्मण भी बड़े शैक्षणिक संस्थान स्थापित कर चला सकते हैं।
उन्होंने अपनी संस्थाओमें ब्राह्मणों को आने से
रोका था। उन्होंने सोचा था कि, अगर मैं अपने संस्थान के दरवाजे ब्राह्मणोंके लिए खोल दु, तो वे अंदर घुस जाएंगे और रयत शिक्षण संस्थान को ब्राह्मण सभा बना देंगे। एक कहावत है, ब्राह्मण को अगर थोड़ीसी भी जगा मिल जाए, तो वह धीरे
धीरे पूरी जगा ही अपनी बना लेता है। इसीलिए कर्मवीर पाटील का डर निराधार नहीं था।
उन्होने ज्योतिराव फुले की तरह, सनातन धर्म के आधिपत्य और रीतिरिवाज को स्वीकार नहीं किया। उस जमाने में
ब्राह्मणोंके दूध पीते बारह चौदह वर्षीय लड़के अपने दादा दादी के आयुवाले मराठा और बाकी लोगोंकों अरेतुरे (हल्के शब्दोमे ) कहकर बुलाते थे। इस बात पर कर्मवीर पाटील भड़क गए थे, उन्होने कहा, इस तरह की प्रथाएं अबतक की परंपरा रही होंगी, लेकिन अब उन्हें बर्दाश्त नहीं किया
जाएगा।
कोल्हापुर के
नजदीक औदुंबर में दत्त जयंती का भंडारा मनाया जाता था। इस दत्त जयंती के लिए किसानों और बहुजन समाज के लोग पैसा और अनाज दिया करते थे। यहा प्रसाद के नामपर भोजन दिया जाता था। लेकिन भोजन की पंक्तियाँ केवल ब्राह्मणों के लिए रहती थी। ब्राह्मण खाना खाते थे और कई किसान वह नजारा देखते
थे। ब्राह्मण भोजन के बाद बचा हुआ भोजन दूसरों को
वितरित किया जाता था। लेकिन वहाँ कुछ सत्यशोधक समाज के
अनुयायी थे। उनसे ये देखा नहीं गया, वे सीधे
भाऊराव पाटील के पास गए और उन्हे पूरी कहानी सुनाई। कर्मवीर विचलित
हो गए। उन्होंने कहा, ''कल ब्राह्मणों की एक भी पंक्ति नहीं होनी चाहिए''। मैं, वहां किसानों के सामने भाषण दूंगा।
कर्मवीर पाटिल का
भाषण किसानों के प्रति करुणा और सहानुभूति से भरा था। उन्होंने पांच घंटे तक भाषण दिया। भूखे ब्राह्मण खाने का इंतजार कर रहे थे। वहीं
वे कर्मवीर की कठोर वाणी की लाठियां भी खा रहे थे। इस दौरान उन्हें व्यवस्थापक द्वारा
जगह खाली करने का निर्देश आया। इसपर कर्मवीर बोले, ब्राह्मण भूखे हो सकते हैं, लेकिन आपके सामने बैठे
किसान भी भूखे हैं। क्या आपने कभी उनकी भूख पर ध्यान दिया ? अब ऐसा करें, ब्राह्मणों और
गैर-ब्राह्मणों को एक ही पंक्ति में खाना खिलाए। यह भगवान का उपहार है। लेकिन ब्राह्मण बिना खाना खाए घर चल गए । कर्मवीर ने
कहा, ब्राह्मणों को मेरी शुभकामनाएँ।
उस दिन कर्मवीर के भाषण से किसानों को एक नया विचार मिला। बेशक, यह संदेश समानता,मानवता और विवेक का था। गाडगे महाराज प्रबोधन के
लिए अक्सर पंढरपुर के यात्रा में जाया करते थे। वहाँ वे वारकरी यात्रियोंकों कहते
थे, आपने भगवान देखा है क्या? भगवान! इसपर
लोग कहते थे, नहीं जी! भगवान को तो हमने कभी नहीं देखा। तब, गाडगे महाराज, कर्मवीर भाउराव पाटील के तरफ उंगली
दिखाकर कहते थे, देखो वो भगवान, वहाँ
खड़ा है। इससे भाऊराव पाटील के कार्य को समजा जा सकता है।
कर्मवीर के विचारोसे सभी किसान सहमत नहीं हुए होंगे। अगर ऐसा होता, तो आज गैर-ब्राह्मणों और किसानोंके घर पूजा के लिए ब्राह्मण को नहीं बुलाया
जाता । चूँकि ब्राह्मण गैर-ब्राह्मणों के घरोमे पका हुवा खाना नहीं खाता, फिर भी गैर-ब्राह्मणों द्वारा उनके घर कच्चा राशन पहुँचाया
जाता है। इसपर, भाऊराव पाटिल कहते थे, हमारे लोग कच्चे है। वे सत्यशोधक विचारोंका आंदोलन
और उसके ज्ञान को नहीं समझ पाए। इसीलिए, सत्यशोधक आंदोलन रुक गया है।
वास्तव में यह
सत्यशोधक आंदोलन की हार थी। इतिहास गवाह है की, शाहु महाराज के बाद सत्यशोधक समाज के लोग ब्राह्मणवाद
को शरण गए। कुछ सत्यशोधक अपने रास्ते से भटककर काँग्रेस मे शामिल हो गए। वे महात्मा
ज्योतिबा फुले और शाहू महाराज के विचार और आचार को सहन नहीं कर सके। लेकिन आज के
परीपेक्ष्य मे, उससे भी जादा नुकसान अंबेडकरी आंदोलन का हुआ है। अम्बेडकरवादी आंदोलन एक धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक रूप
से खोया हुआ आंदोलन है। वह अनेक गुटोमे बटा है, इसिलीए वह
आरएसएस जैसे हिंदुत्ववादी आंदोलन का सामना नहीं कर पा रहा है। आज के दौर मे वह केवल प्रतिक्रियावादी आंदोलन तथा संगठन
बन बैठे है।
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