Sunday, February 20, 2022

पंजाब में दलित संख्या से अधिक, लेकिन राजनीति में न्यूनतम। क्यों ?


आर्थिक रूप से संपन्न पंजाब में दलितोंकी बड़ी आबादी है। जनसंख्यांक आकड़ों के अनुसार यहाँ भारत के किसी भी राज्य से अधिक लगभग 32 प्रतिशत आबादी केवल दलित सिखोंकी है। आबादी का इतना प्रतिशत राजनीतिक सत्ता में केवल भागीदार नहीं बल्कि सत्ताधारी बने रहने के लिए काफी असरदार होता है। लेकिन पंजाब का दलित चुनावी राजनीति में हमेशा आखरी पायदान पर रहा है।

पंजाब में मुख्यत: अकाली दल और काँग्रेस की सत्ता रही है। अब भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी की भी अपनी दखलअंदाजी दिख रही है।  लेकिन इन सारी पार्टियोंको दलितोंका नेतृत्व कभी स्वीकार्य नहीं रहा । जाट शिखोंकी आबादी दलित शिखोंके जनसंख्या से बहुत कम होने के बावजूद पंजाब में केवल जाट सीख को मुख्यमंत्री बनने और बनाने का इतिहास रहा है। कैप्टन अमरिंदर सिंग के मुख्यमंत्री पद के इस्तीफे के बाद काँग्रेस ने चरणजीतसिंग चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया। लेकिन चरणजीतसिंग चन्नी का हश्र महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री सुशीलकुमार शिंदे जैसा होने की अधिक संभावना है। याद रहे, महाराष्ट्र में चुनाव के बाद जातिगत राजनीति के कारण शिंदे की जगह विलासराव देशमुख को मुख्यमंत्री बनाया गया था।  यह इतिहास पंजाब में काँग्रेस बहुमत से सत्तामे वापसी के बाद नवज्योतसिंग सिध्दु को मुख्यमंत्री बनाकर दोहराया जा सकता है।

सामाजिक और आर्थिक स्थिति की समीक्षा से पता चलता है की, पंजाब में जाट सीख लगभग सभी कृषि भूमि और सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र पर अपना अधिकार बनाया रखे है।  वही दलित सीख भूमिहीन होने के कारण जाट शिखोंके जमीन की देखभाल करना एंव  खेतिहार मजदूर बने है। वे स्वामित्व के अधिकार से वंचित है। इसके विपरीत सामाजिक एंव आर्थिक नियंत्रन जाट सिखोंके हातो मे है। इसका सीधा असर राजनीतिक सत्तापर उनका नियंत्रण होने में हुआ। दलित सीख आर्थिक अक्षमता के कारण चुनावी मैदानो में टिक नहीं पाता।  

पंजाब से निकले कांशीराम ने बामसेफ (1978) और बहुजन समाज पार्टी (1984) का गठन किया। दोनों संगठनो के कारण दलित जातियोमे सामाजिक और राजनीतिक चेतना का निर्माण हुआ। शासन, सत्ता, सामाजिक एंव आर्थिक मामलोमे भागीदारी की बात चली। इसका फायदा यह हुआ की, पंजाब की मुख्य धारावाली पार्टियोने दलितोंकों प्रतिनिधित्व देना चालू किया। फिर भी अनुसूचित जातियोंकों राज्य की चुनावी राजनीति में संख्या के आनुपातिक कम प्रतिनिधित्व मिला है। 1967 और 2012 के बीच 1,248 विधायकों में से, अनुसूचित जाति को केवल 25.16%, अन्य पिछड़ा वर्ग 8.97% और जाट सिखों को  43% प्रतिनिधित्व मिला।

पंजाब में काशीराम के मौजदगी में, 1997 के चुनाओमे बहुजन समाज पार्टी का व्होट शेयर 7.48 प्रतिशत रहा। लेकिन 2002 से लेकर 2017 तक के विधानसभा चूनावो मे बसपा का वोट शेअर 5.69 फीसदी से 4.13, 4.29, 1.5 फीसदी तक घटता गया। दलित वोट शेयर मुख्यत: काँग्रेस और अकाली दल में बट जाता है। आश्चर्य की बात है की, 2017 के चूनाव में आम आदमी पार्टी को दलितोने 28.53  फीसदी वोट किया, वही बहुजन समाज पार्टी को केवल 2.27 फीसदी वोट मिले। बहुजन समाज पार्टी का पंजाब में नाकाम होना यह दर्शाता है की, पंजाब का  दलित वोटर उचि जातियोंद्वारा चलाई जानेवाली पार्टियोंकों अधिक अहमियत देता है। अनुसूचित जातीया काँग्रेस, अकाली दल, भाजपा और आम आदमी पार्टीके पृथक वोटर बने है।

पंजाब में दलितोंकी लगभग एक तिहाई आबादी होने के बावजूद उन्हे अपमान और प्रताड़ना सहनी पड़ती है। किसान आंदोलन में एक दलित शिख की बर्बरता से हत्या कर दी गई। हात पैर काटकर उसे उलटा लटका दिया गया। हत्यारोंकों ना अफसोस था, ना शर्मिंदी। उलटा वे गर्व महसूस कर रहे थे। आश्चर्यजनक बात यह है की, इस घटना पर तथाकथित प्रोग्रेसिव्ह समाज एंव न्यायव्यवस्था भी खामोश थी। मानो, दलित केवल अपमान सहन करने, मरने एंव कटने, सेवा देने एंव बलात्कार होने पर भी चुप रहने के लिए पैदा होते है। मानवाधिकार के न्यूनतम अधिकार भी सहज नहीं मिल पाते।

दलितो में बाबासाहेब आंबेडकर के विचारोंकी स्वाभिमानता तो है, लेकिन शिक्षा के अभाव में सोचने की क्षमता और गरीबी के कारण आत्मनिर्भरता का निर्माण नहीं हुआ। सरकारी योजनाए उनके मोहल्ले तक नहीं पहुच पाई। योजनाए केवल कागदोतक सीमित रही । पंजाब में दलितोंके परंपरागत चमड़ोंके व्यवसायोमे स्वर्णोंकी सेंधमारी हुई। सरकारी नीति और 2014 से गोरक्षा कानून के कारण व्यवसायोमे कृत्रिम कंगाली निर्माण हुई।

गांधीद्वारा आंबेडकर पर थोपा गया पुना करार केवल आज के दौर में ही नहीं, भूतकाल में भी  दलितोंके लिए हितेषी नहीं था। अब, वर्तमान की परिस्थितिया पूरी तरह से बदल गई है। अनुसूचित जाती के सामान्य लोग और नेता स्वर्णोकी की पार्टियोंकों अपना वोट देकर सत्ता में लाने का काम कर रहे है। चुनावी दौर में वर्षोंके अत्याचार को भूल जाते है। भारत में अब एक ट्रेंड बन गया है, दलितोपर (महिलाए और पुरुष दोनोंपर) कितने भी अमानुष, अतीमानुष और महाभयंकर के श्रेणीवाले अत्याचार होनेपर भी यहाँ की सिविल सोसायटी, न्यायव्यवस्था, पोलिस, प्रशासन  और सरकारे चुप रहती है। मानो, ये लोग द्लितोपर अन्याय होने देते है, उसे रोकना नहीं चाहते। कारवाई की तो कुछ बात ही नहीं होती। लेकिन जब किसी दलित एंव पिछडोद्वारा किसी सवर्णपर अत्याचार होता है, तब मीडिया, सरकारे, सिविल सोसायटी, न्यायव्यवस्था एकदम खड़ी होती है। पूरा देश जाग जाता है। अल्प समय में गुन्हेगार को दंडित किया जाता है।

भारत में दो न्याय व्यवस्थाए बन गई है। इसके कई सबूत उपलब्ध्द है। इस स्थिति में संख्या कितनी भी ज्यादा हो, उन्हे न्याय नहीं मिलेगा।  इसी कारण, राजनीति में प्रतिनिधित्व की भागीदारी भी न्यूनतम होती जा रही है। उन्हे अगर भागीदारी मिल भी जाती है, तब भी वे विधानसभा और लोकसभा के चर्चासत्रो मे चुप रहना ही पसंत करते है। विद्रोह का स्वर उनमे जन्म नहीं लेता। क्योंकि यह भागीदारी सौदेबाजी में मिली होती है। खासदार रहते हुए समाजहितेषी स्वर लगाने के कारण डॉ. उदित राज को 2019 के चुनाव में भाजपा ने तिकीट नकार दिया। उनकी जगह जिन्हे तिकीट मिली, उसने कभी भी दलितोंके अत्याचारो के खिलाफ एंव सरकारी योजनाओंके अंमल के लिए संसद के अंदर या बाहर आवाज नहीं उठाई।

पंजाब का एक बड़ा पढ़ा लिखा उद्योगी दलित वर्ग यूरोपीय देश, कनाडा, अमेरिका में जाकर अपना आर्थिक स्तर बढ़ा रहा है। किंतु वह अपनेआप मे सीमित है। उनकी मानसिकता समानता की नहीं, बल्कि प्रस्थापित अन्यायी विषमतावादी सामाजिक व्यवस्था को सन्मान देने की होती है। समाजव्यवस्था के साथ साथ वे राजनीति में बदलाव नहीं चाहते। परिणामत: अधिक आबादी के बावजूद पंजाबी दलित राजनीति में न्यूनतम रह गए। 

 

लेखक: बापू राऊत, मुंबई 

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