Wednesday, July 20, 2022

भारतीय चुनाव और मतदाता का झुकाव

 

भारत एक लोकतांत्रिक देश है. इसीलिए स्वतंत्रता के बाद लोकसभा एंव विधानसभा के चुनावी माहोल में मतदाताओं और एक से अधिक पार्टीयोंकी बेझिझक भागीदारी रही है. चुनाओमे, बहुविध पार्टिया मतदाताओंको अपने अपने मुद्दोंपर आकर्षित करनेका प्रयास करती है.  सभी मतदाताओंको (वोटर्स) को राजनीतिक समज होती है, ऐसा नहीं है. कुछ सामुदायिक वोटर्स पावर शेअरिंग को मद्देनजर वोट का उपयोग करते है. राजनीतिक समज का अभाव होनेवाले मतदाता किसीके भि  प्रभाव में आकर वोट करते है. वैसे भि, मुख्यत: मतदाता दो प्रकार के होते है. एक वैचारिक मतदाता, दूसरा फ्लोटिंग (तरंगता) मतदाता. इसमें एक तीसरे प्रकार के मतदाता का आगमन हो गया है. इस तीसरे को  लाभार्थी या सरकारी मतदाता कहा जा सकता है. इन लाभार्थी मतदाताओने ने २०१९ के लोकसभा और उसके बाद के विधानसभा चुनाओमे सताधारी पार्टीयोंको जितवाने में अंहम रोल अदा किया है. इस तरह के वोटर्स के पैटर्न से चुनाव में बेरोजगारी, महंगाई और बेहत्तर शिक्षा जैसे मुद्दे धराशाई हो गए. जिसका अब कुछ मोल नहीं है क्योकि राजनीतिक पार्टीयोने वोटरोंके पैटर्न के साथ साथ सरकारी संस्थाओ के नए पैटर्न का निर्माण किया  है.  

वैचारिक वोटर्स उस पार्टी को वोट देते है, जिसकी विचारधारा उनकी सामूहिक या व्यक्तिगत विचारधारा से मेल खाती है. वैचारिक वोटर्स चाहते है की, चुनाव में उनकी पसदिंदा विचारोवाली पार्टी जित जाए. वैचारिक मतदाता की संख्या जितनी ज्यादा होगी, चुनाओमे उतनीही पार्टीयोंकी पकड़ मजबूत होती है. वैचारिक मतदाता पार्टीके बुनियाद को मजबूत करता है. वैचारिक मतदाता की उपज धर्मवाद, जाती और क्षेत्रवाद के बुनियाद से होती है. इन्ही बुनियाद पर भारत में अनेकानेक पार्टियोंका निर्माण हुवा है. अपनी पसदिंदा पार्टी के जितने के आसार न होनेपर भि  वैचारिक वोटर्स अपनी विचारधारावाली पार्टी के पक्ष में वोट डालते है. इतनाही नहीं, वैचारिक वोटर्स अपनी पार्टीयोंकी गलत नीतियों पर परदा डालकर दूसरी पार्टीयोंकी खामिया उजागर करते  है.

मौजुदा राजनीतिक दौर में ज्यादातर मुख्य जातिया वैचारिक रूप से किसी ना किसी पार्टीयोंके साथ जुड़ चुकी है. इसमे आदिवासी, दलित-पिछडो एंव मुस्लिम से  लेकर सवर्णोंतक की जातिया सम्मिलित है. मुस्लिम वोटर्स मुख्यत: सेक्युलर पार्टीयोंके साथ अपना जुड़ाव रखते है. चुनाओमे यह वोट निर्णायक होते है. इसाई वोटर्स ज्यादातर कांग्रेस के पक्ष में होते है. लेकिन गोवा और नार्थ ईस्ट में जैसे की मणिपुर, मेघालय, आसाम और नागालैंड में भाजपा के पक्ष में जाकर चौका दिया है. इसमे मोदी और अमित शहा का क्षेत्रीय वातावरण देखकर बदलता कूटनीतिक प्रयास दिखाई देता है.

दूसरा प्रकार है, फ्लोटिंग वोटर्स का. भारतीय राजनीति में फ्लोटिंग वोटर्स काफी अहमियत रखते है. फ्लोटिंग वोटर्स आमतौर पर उन मतदाताओं को कहा जाता है, जो वैचारिक रूप से किसी भि राजनीतिक पार्टी के वोटर नहीं माने जाते. फ्लोटिंग वोटर्स की जातिया आर्थिक और शैक्षणिक रूप से कमजोर होती है. उनमे जागृत पोलिटिकल लीडरशिप नहीं होती. कही कही इन जातियोंके नेता उभरते है, लेकिन स्वार्थ की राजनीति के कारण वे अपनी जातियोंका भला नहीं कर पाते. क्योकि वे अक्सर यस सर वाले प्रवृत्ति के या खुद को गौण प्रतिक के समजनेवाले होते है. फ्लोटिंग वोटर्स का कोई खास एजंडा नहीं होता. वे बोलनेसे ज्यादा सुनना पसंद करते है. वे केवल लुभावने वादे और आकर्षक प्रचार से प्रभावित होते है. राजनीतिक पार्टीयोंको भि पता होता है की, वे हवा के साथ चलते है. इसीलिए चुनाव के दौरान जो राजनीतिक दल जीतनी जबरदस्त प्रचार और उमेदवारोंकी ब्राडिंग करेगा फ्लोटिंग वोटर्स उनके साथ ही चले जाएंगे. प्री ओपिनियन पोल फ्लोटिंग वोटर्स को प्रभावित करते है. वास्तविक ओपिनियन पोल करनेवाली कंपनिया पक्षपाती होकर ओपिनियन पोल प्रस्तुत करती है, जिससे की फ्लोटिंग वोटर्स प्रभावित हो. चुनाव में आमतौर पर ४ से ६ प्रतिशत फ्लोटिंग वोटर्स होते है. हवा का रुख भापकर वे जिस पार्टी के साथ जुड़ जाते है, उसका वोट प्रतिशत बढ़कर विजयी माला मिल जाती है.

भारत के चुनाओमे लाभार्थी वोटर्स की अब नई श्रेणी आ गई है. इस श्रेणी में वह तबका आता है, जिसे सरकारी फायदे मिलते हो. इन लाभार्थी में मजदूर, खेतिहारी, बीपीएल कार्डधारक, बुजुर्ग महिला पुरुष और विकलांग आते है. सरकारे चुनाव के पहले इनके खातो में पैसे डाल देती है. आश्वानोंकी की रेबडीया बाटी जाती है. फ्री में खाने की चीजे दी जाती है और थैलिओपर प्रधानमंत्री और पार्टी के चुनाव चिन्ह छपवाकर  अहसानोंकी याद दिलाई जाती है.

भाजपा की सरकारे बहुसंख्यांकवाद पर नहीं अल्पसंख्यक आरएसएस के विचारधाराओपे चलती है. आरएसएस एंव भाजपा ने धर्म, मंदिर और हिंदुत्व के नामपर अपने कट्टर वैचारिक वोटर्स बना लिए है. यह उनकी ख़ास मजबूती है. संघ ने जबसे धर्मवाद और राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाया तबसे भाजपा की कोशिश समान विचारधारावाले क्षेत्रीय दलोंको (शिवसेना जैसे पक्षोंको ) खत्म करने की रही. दक्षिण में क्षेत्रवाद आधारित राजनीती की जड़े गहरी है. तामिलनाडू मे डीएमके और एमडीएमके, आंध्र प्रदेशमें  तेलगु देशम एंव वाईएसआर, प.बंगालमें  टीएमसी और ओरिसा में  बीजेडी इन्होने अपने प्रदेश में धर्म को कभी हावी नही होने दिया. ममता ने भाजपा से निपटने के लिए भाषा, संस्कृति और क्षेत्रवाद के साथ मुस्लिम को भि अपने पाले में शामिल कर लिया. वही पश्चिम बंगाल में संघ और भाजपा ने हिंदुत्व, दुर्गा, मंदिर और दलित कार्ड खेलना चालु किया. इसका फायदा उन्हें २०१९ (लोकसभा) और २०२१ (विधानसभा) में मिला. इसका अर्थ साफ़ है की, ममताजी के गढ़ में  भाजपाने अपने वैचारिक वोटर्स  बनाकर फ्लोटिंग वोटर्स को प्रभावित कर लिया  है. 

दक्षिण का कर्नाटक राज्य अब हिंदुत्व की प्रयोगशाला बन चुका है. भाजपा ने हिंदुत्व और मुस्लिम विरोध का कार्ड खेलकर विरोधियोंको बेसहारा कर दिया. याने संघ-भाजपाने  जनता दल (सेक्युलर) और कांग्रेस के सवर्ण वोटरों को अपने पक्के वैचारिक वोटर्स बना दिए. बहुमत के लिए उन्हें फ्लोटिंग वोटर्स को केवल टिल्ट करते रहना है. संघ-भाजपा धीरे धीरे तामिलनाडू और केरला में अपने राष्ट्रवाद, धर्मवाद और मुस्लिम विरोध के साथ साथ द्रमुक और कम्युनिस्टोंके विचारधारा को लक्ष्य करने लगी है. तमिलनाडु और केरला का अप्पर सवर्ण क्लास भाजपा का वैचारिक वोटर्स बनने के राह पर है. धर्म के नामपर ओवेसी भि मुस्लिम वोट लेना चाहते है. इसका सबसे से ज्यादा फायदा भाजपा को और अधिकतर नुकसान कांग्रेस का हो रहा है.

मंडल आयोग के बाद मुलायम सिंग यादव और लालू प्रसाद यादव ने ओबीसी वोट बैंक को अपने वैचारिक वोटर्स के तौर पर अपना राजनीतिक विस्तार किया. १९८४ के दशक में कांशीराम ने बहुजनवाद का नारा दिया. इसमे दलितोंके साथ साथ ओबीसी, अति पिछड़े और मुस्लिम भि सामिल थे. यह वैचारिक वोटर्स और फ्लोटिंग वोटर्स का एक गठबंधन था. इस गठजोड़ ने मुलायमसिंग यादव और मायावती को मुख्यमंत्री पद तक पंहुचा दिया.  बसपा के वैचारिक वोटर्स को झटका तब लगा जब मायावती ने ब्राम्हण वोटर्स को ध्यान में रखकर सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय का नारा दिया. ब्राम्हण, मुस्लिम और पिछड़ी जातिया बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के वैचारिक वोटर्स नहीं थे, बल्कि फ्लोटिंग वोटर्स थे. २०१४ के बाद ब्राम्हण और उची स्वर्ण जातीया मजबूती के साथ भाजपा के वैचारिक वोटर्स बन गए, जो उत्तर प्रदेश में २००७ के विधानसभा में बसपा (मायावती) के पास केवल पावर शेअरिंग के लिए आये थे. जब की मायावती और अखिलेश यादव के नितियोंसे नाराज दलित, ओबीसी और अतिपिछडे भाजपा के फ्लोटिंग वोटर्स बन गए. इसमे एक और वोटर्स जुड़ गए है, जिसे लाभार्थी वोटर्स कहा जाता है. 

अब भारतीय जनता पार्टीजित के बादशहा” की तरह है. उनके के पास वैचारिक केडरोंकी फ़ौज के साथ फ्लोटिंग एंव लाभार्थी वोटर्स, धर्म, मिडिया, हिंदुत्व और प्रशासनिक कार्यकलाप है.  खुले तौर पर संघवादी नए भारत की नींव डाली जा रही है. बहुसंख्यांकवाद पर सवार होकर चीन की नकेल पर यहाँ केवल एक पार्टी रुल का रुख भी हो सकता है. भारत आजादी का अमृतकाल मना रहा है. अब इस नये भारत में ना ज्योतिबा फुले पैदा होंगे, ना पंडिता रमाबाई और ना गांधी-आंबेडकर- पेरियार. 

लेखक: बापू राऊत

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