बहुजन आंदोलन का दूसरा अध्याय बाबासाहेब अम्बेडकर और राम मनोहर लोहिया से
शुरू होता है। दोनों बहुजनों और वंचित वर्गों के लिए सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक न्याय लाना चाहते थे। उसके लिए उन्होंने सामाजिक जागरुकता, अधिकारों की माँग तथा राजनीतिक सत्ता में भागीदारी के लिए आन्दोलन शुरू
किए। इस कड़ी का प्रथम चरण था अनुसूचित
जाति संघ की स्थापना। यह 1942 में दलित समुदायों
के अधिकारोंके लिए अभियान चलाने हेतु स्थापित किया गया था। फिर उन्होंने जाति और पूंजीवादी संरचनाओं का विरोध
एंव भारतीय श्रमिक वर्गोके हितो
के लिए 15 अगस्त 1936 को इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (ILP) गठित की। इस पार्टी
द्वारा बाबासाहेब आंबेडकर ने स्वतंत्रता-पूर्व 20,000 हजार किसान और मजदुरोंका कोंकण से
मुंबई तक विशाल लॉन्ग मार्च निकाला गया था। लेकिन बाबासाहब का संपूर्ण बहुजन समाज की राजनीति का सपना था। इसीलिए
उन्होंने बहुजन समाज के सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक समस्या के समाधान के उद्देश्य और
विचारधारापर चलनेवाली "रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया” की स्थापना की। इस पार्टी
का गठन इस स्थिति में किया गया था कि, कांग्रेस और उच्च जाति के दल
बहुजन समाज के समग्र विकास की अनुमति नहीं देंगे। लेकिन बाबासाहेब अम्बेडकर ने भारतीय
संविधान के माध्यम से आरक्षण, महिलाओं
के अधिकारों और राजनीतिक सत्ता में भागीदारी के माध्यम से बहुजन समुदाय के
सशक्तिकरण के प्रावधान किए। लेकिन बाबासाहेब अम्बेडकर और लोहिया की मृत्यु के बाद, क्षेत्रीय स्तर
पर क्षेत्रीय नेताओं के उदय ने गैर-ब्राह्मण आंदोलन को और विभाजित कर दिया। इस
प्रकार अखिल भारतीय स्तर पर बहुजनवादी गैर-ब्राह्मण
राजनीति का पतन होते गया।
मान्यवर कांशीराम के कार्यकाल में बहुजनवाद को और धार मिली। उनके बहुजनवाद ने ओबीसी
और वंचित समुदायों को आकर्षित किया और उन्हें राजनीतिक सत्ता में भागीदार बनने के
लिए प्रेरित किया। इसके लिए उन्होंने डॉ
अंबेडकरजीके विचारों
के आधार पर 6 दिसंबर 1978 को बामसेफ का निर्माण किया. इसके पीछे मुख्य एजेंडा समाज बौद्धिक
संपदा, धन और प्रतिभा की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित कर बहुजनोंको शिक्षित करना और उन्हें इतना
शक्तिशाली बनाना था कि वे राजनीतिक सत्ता पर कब्जा कर सकें। उन्होंने
सीमित राजनीति के लिए 1981 में दलित शोषित
समाज संघर्ष समिति (DS4) की स्थापना की। इस संगठन ने उत्तर और दक्षिण भारत
के लोगों पर प्रभाव डाला था. बाद में उन्होंने DS4 को भंग कर पूरी तरह से राजनीतिक शाखा के
रूप में बसपा का गठन कर बामसेफ से दुरी बना ली. लेकिन उन्होंने राजनीति के लिए बामसेफ
से दुरी बनाकर उसे आरएसएस के तौरपर मातृसंगठन (Mother organization) बनानेके अपने ही सपनों को हाशिए पर छोड़ दिया। यह बहुजन समाज के सर्वांगीण विकास के लिए बहुत बड़ा झटका था।
फिर भी, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में
सत्ता और कुछ राज्यों में राजनीतिक सफलता बहुजनवाद की एक छोटीसी सफलता थी। लालू प्रसाद
यादव, मुलायम सिंह,
नीतीश कुमार और देवेगौड़ा के नेतृत्व का उदय बहुजनवाद सेही हुआ। लेकिन इस बहुजनवाद के दीर्घकालिक प्रणाली का
हिस्सा बनने में कई बाधाएँ और सीमाएँ हैं। इसलिए बहुजनवाद की राजनीति हमेशा हार की चट्टान पर
खड़ी रही है।
बहुजनवाद के विफल होने के
कारणों पर यहाँ विचार करने की आवश्यकता है। उनमें से 1. साम्प्रदायिक विखंडन और एकता की कमी: यद्यपि बहुजनवाद विविध
समुदायों का प्रतिनिधित्व करता है, भारतीय
समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी जाति पदानुक्रमता, एकता के कारण
प्रमुख जातियों के अपने विशेषाधिकार खोने का डर और परस्पर विरोधी हितों के कारण
अविश्वास के कारण एकता की कमी। 2.
संसाधनों की कमी: आंदोलनों में दीर्घकालिक राजनीतिक लामबंदी को बनाए रखने के लिए आवश्यक
वित्तीय और संस्थागत संसाधनों की कमी होती है। 3.सीमित संगठनात्मक संरचना: बहुलतावादी राजनीतिक दलों और आंदोलनों की संगठनात्मक ताकत और पहुंच स्थापित
राजनीतिक दलों की तुलना में कमजोर। 4. चुनावी चुनौतियाँ और सीमित सफलता: बहुजन समाज का एक बड़ा वोटबैंक
होने के बावजूद, बहुजन
पार्टियाँ अपनी संख्यात्मक शक्ति को चुनावी सफलता में बदलने में असमर्थ रही हैं,
जिसके परिणामस्वरूप अप्रभावी सीमित सफलता मिली है। 5.विचारधारा का विकेन्द्रीकरण: बहुजनवादी विचारधारा (बहुजन महापुरुष के विचार) के प्रचार-प्रसार में
विफलता और महिलाओं, ओबीसी
और इसी तरह के वंचित वर्गों को इसका लाभ
पहुचानेकी असफलता 6. प्रभावी नेतृत्व और संगठन का अभाव: राष्ट्रीय स्तर पर करिश्माई, ईमानदार
और संगठित नेताओं की अनुपस्थिति और कैडर आधारित संगठन की कमी जो मौजूदा सत्ता
संरचनाओं को प्रभावी ढंग से चुनौती दे सके। औपचारिक पार्टी अनुशासन और संगठन में
पारदर्शिता की कमी के कारण जनता के विश्वास में कमी 7. अवसरवादी नेता में विश्वास : बहुजन जनता नेताओंके कल्याण
के लिए अपना तन मन धन सब कुछ झोंक देती है, लेकिन ऐसे अवसरवादी नेताओं का
साथ तब भी देती है जब ऐसे नेता जनता को भुलाकर अपना धन और कद बढ़ाने का प्रयास
करते हैं। ८.मातृसंघटन का अभाव:
समाज के सर्वांगीण विकास के लिए
निर्मित राजनीतिक पार्टी, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आदी संघटनोके नियमन और
देखरेख के लिए मातृसंगठन की जरुरत होती है. बहुजनवादियोंके पास ऐसे संगठन की कमी है. बामसेफ ऐसा
रोल अदा कर सकता था, लेकिन वह नियामकता, व्यक्तिविशेषता पर जोर, पदो का
विकेंद्रीकरण और पारदर्शिता के अभाव के कारन
भरोसेमंद न होना. 9. बहुजन वंचितों की कई पार्टियां: बहुजन वंचित वर्ग के कई गुट और पार्टी संरचनाएं हैं। इससे सकारात्मक
सामूहिक राजनीतिक लढाई की संभावनाएं कम हुई हैं और बहुजन वंचित पार्टी
के कुछ नेता भाजपा और संघ के करीबी बन गए हैं, की जो संवैधानिक
समतावादी व्यवस्था के विरोधी हैं। इसने एकीकृत राजनीतिक आंदोलन का बड़ा निर्माण करना कठिन बना दिया है की, जिससे प्रभावी पार्टिया और संगठनो को चुनौती दिया जा
सके।
ऐसे में बहुजन राजनीति की असफलता
में अपना समय व्यतीत करने के बजाय बहुजन जनता के विकेंद्रीकृत सामाजिक और आर्थिक विकास के मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित
कर देना चाहिए। वर्तमान
सांस्कृतिक, राजनीतिक
और सामाजिक स्थिति पर विचार करें, तो देश अलोकतांत्रिकता, असमान
पूर्वगौरवता, संविदावाद और
पूंजीवाद की ओर बढ़ रहा है, जहां
से वह तेजीसे धार्मिक उत्पीड़न
की तरफ बढ़ रहा है। अनेकता
में एकता की देश की छवि एक टूटे हुए आईने की तरह हो गई है। ऐसा लगता है कि, संविधान के सिद्धांतों को
कमजोर करने के लिए धर्म और विशेष सांस्कृतिक विचारधारा को इतनी खुलेआम छुट और बेशर्मी से समर्थन किया जा
रहा है कि, इसके समर्थन देने के लिए और अधिक
डेटा प्रदान करने की आवश्यकता नहीं है।
बहुजन समाज के लिए अलोकतांत्रिक विषमता और पूंजीवादी राजनीति विनाशकारी होगी। इस स्थिति को बदलने की जरूरत है। सवाल यह है कि, इस स्थिति को बदलने का तरीका क्या है? विभाजित बहुजन आंदोलन और उसकी राजनीती ऐसी बढ़ती हुई कट्टर धर्मांध राजनीति को रोक नहीं सकता। लेकिन इसमें बहुजनों के वोटबैंक की राजनीति ही कुछ अच्छा कर सकती है। उसके लिए अवसरवादी राजनीतिक नेताओं की कमियों को उजागर कर बलिदान की भावना रखनेवाले बुद्धिजीवियों को चाहिए की, वे बहुजन-वंचित वर्गो के विकास के लिए आगे आए। और उन्हें चाहिए की, हर क्षेत्र की व्यवस्था में भागीदारी की गारंटी देनेवाली और संविधान विरोधी ताकतों को हराने के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों और बहुजन वंचित वर्गोके हितों की रक्षा करनेवाली पार्टियो के साथ चुनावी समझौते को अनिवार्य समझें।
बापू राऊत
लेखक एंव विश्लेषक
९२२४३४३४६४
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