Thursday, December 24, 2015

इतिहास से गर्व क्या? नया इतिहास भी तो निर्माण करो!

समाज का हर वर्ग या देश अपने अपने इतिहास पर गर्व करते है किसी का इतिहास कुप्रथाओसे भरा होता है, फिर भी वे अपने मैले इतिहास को गौरवान्वित मानते है किसीका इतिहास छल कपट से भरा होता है, ऐसे इतिहास को भी कुछ लोक अपना आदर्श घोषित कर वर्तमान मे उसका प्रयोग करना चाहते है गत इतिहास में ऐसे पुरुष पैदा हुवे है, जिनकी विचारधारासे सामाजिक व्यस्वस्था तस की नस हो गयी थी ऐसे विनाशपुरुष भी आज किसीके गौरव है वर्तमान स्थिति में जो लोग तथा समूह ऐसे इतिहास को और कपट नितिकारोको अपना आदर्श घोषित कर उनके विचारों पर अंमल करना चाहते है, वे लोग लोकतंत्र को नकारते है, समानता से उन्हें डर लगता है, की जिससे वे अपना वजूद खो न बैठे अहंकारिता की कायरता उनके दिल दिमाग में बैठी होती है इस विचारधारा के लोग कभी भी बहुसंख्यांक नहीं होते अल्पसंख्यांक होते हुवे भी वे
ताकदवर होते है संसाधनात्मक भंडारोके  मालिक होते है जिससे वे बहुसंख्यांक समाज को गुलाम बना लेते धर्म, धर्मशास्त्र तथा पारंपारिक प्रथाए उनका सबसे बड़ा हथियार होता है। वे खुद को धर्मके चालक तथा मालक समझते है।
आज के वैज्ञानिक तथा सभ्यसमाज के युग में ऐसे दमनकारी इतिहास पर गौरव वा उत्साहित होने के बजाय उस इतिहास की धाराए को फेक देना ही समजदारी होती है और उसके जगह नए समाज की अवधारणाए बनानी जरुरी है नया इतिहास का निर्माण जरुरी होता अपने गुंडे या बलात्कारी दादाजी को कोण याद करता है? उसकी निशानी मिटाने का काम अगली पीढ़िया करती है दमनकारी और असभ्य इतिहास का हश्र भी वही होना चाहिए जैसे बलात्कारी दादाजी का
समाज का एक दूसरा आईना भी है गौरवान्वित इतिहास तथा महापुरुषों का सिर्फ गर्व करना और करते रहना उन्हें अच्छा लगता है यह समाज महापुरुषोके समानता तथा विवेकवादी विचारों को स्वर्ग से परे समझते है उनके महान विचारों का केवल आपस में चलगमन करते रहना उनके विचारोको केवल   बढ़िया विचार बताते रहने की धारणा बन गयी है लेकिन उन महापुरुषोके विचारों के राहपर चल पडना अभी भी रास नहीं आ रहा है उनके के महान विचारोसे नया इतिहास स्थापित करना वे कभी सोचतेही नहीं केवल आपस में भिडे रहना, तु बड़ा या मै इसमे उलझे रहनाही एक तकदीर बन गयी है अनुयायी से ज्यादा भक्त बने गए। केवल सोच इतिहास निर्माण करने के लिए काफी नहीं होती, उसके पीछे कार्यकरण भाव होना जरुरी होता है
ऊपर उद्धृत की गयी परस्पर विचारधाराए भारत में मौजूद है। दोनों विचारधाराके प्रवक्ता दिखाई देते है। उसमे एक मजबूत दिखाई देता है तो दूसरा कमजोर। एक दूसरे के घर में घुसकर मारने की क्षमता रखता है तो दूसरा गुटबाजी के चलते अपना बचाव भी नहीं कर पाता। वो उनकेही तिनके का सहारा लेता है। ऐसे हालात में मरना कमजोर का ही तय होता है। इतिहास में वैशाली राज्य के लिच्छवी लोगो का उदाहरण स्पष्टतया मौजूद है। आपसमें गुटबाजी से बटे रहनेके कारण वैशाली राज्य को अजातशत्रुने नष्ट कर दिया था। वैशाली के लिच्छवी का उदाहरण सिर्फ और सिर्फ भाषणों तक सिमित रह गया है। भाषणों के बाहर परिणामों से सबक नहीं सिखा रहा।
मै, अभी ऊपर की पहेलियो को खत्म कर, मुद्दों पे आता हू। मैंने भारत के दो विचारधाराओं का उल्लेख किया है। उसमे एक है, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पुरस्कृत हेगडेवार-गोलवलकरवादी विचारधारा तो दूसरी है फुले पेरियार आंबेडकरादी विचारधारा। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ एक मुखौटाधारी संघटन है। वो लोगो के सामने बोलता कुछ और है, लेकिन कृति उसके विपरीत करता है। जनताको भ्रम में रखना उसका गुणधर्म  है। वो समानता नहीं चाहता। भारत की जनता को श्रध्दालु और अंधश्रध्दालु बनाए रखना उसका मकसद है। सालो से चली आ रही कुप्रथाओं में वह गौरव महसूस करता है। संघ (आरएसस) पुराने धर्मशास्त्रों एंव स्मुर्तिया आधारित विषमतावाद, चातुर्वर्ण्यव्यवस्था तथा उचनिच वाली समाजव्यवस्था का फिरसे निर्माण चाहता है। ब्राम्हण को सबका मालिक बनाकर उसे इश्वर का दूत बनाना चाहता है। संघ (आरएसस) भारत का सर्व शक्तिशाली संघटन है। जनसंख्या के अनुपात में केवल ५% (पर्सेन्ट) ब्राम्हणोंके इस संघटनने ८५ %(पर्सेन्ट) जनसांख्यिक समाज को धर्मशास्त्रों के आधार पर गुलाम बनाया है। भारत के अकेले मालिकापन हक के तौरपर उसका बर्ताव चल रहा है। संघ के शिशु स्वंयसेवक बड़े होकर भारतीय समाजव्यवस्थाको अपने हंटर से चलायेंगे, यह लोकतांत्रिक ढाचे के भविष्यके लिए बड़ा खतरा है। इसे इतिहास का नया संस्करण नहीं, बल्की पुराने इतिहास का पुनर्जीवन कहा जा सकता है।

दूसरी ओर देश का बहुसंख्यांक जातियों में बटा हुवा है । हर जाती के लोगो को लगता है, मै उस जाती के ऊपर हू। वो असमानता की ठोकरे खाता तो है मगर उसमे ही सदा आनंदी और बेफिक्र रहा है। धर्म और जाती के नाम से ठगा है लेकिन कभी भी महसूस नहीं करता। उसी बहुसंख्यांक समाज में जन्मे महात्मा फुले, बिरसा मुंडा, महात्मा बसवेश्वर, रामासामी पेरियार तथा बाबासाहब आंबेडकरने उन्हें अपने गुलामी का अहसास दिलाया। विषमतावादी व्यवस्था के खिलाफ उन्होंने बड़ी जंग लड़ी।  उन्होंने धर्मशास्त्र जलाए और मुर्तियोको चौक में लाकर लोगोसे पिटवाई की। उन्होंने ने माना यह हमारे गुलामी के प्रतिक है, प्रथमत:  इन प्रतिकोंको नष्ट किया जाय। उन्होंने ऐसा करके क्रांती का बिगुल बजाया था। उन्होंने समाज को नई  विचारधाराए दी, विवेकवाद सिखाया, विज्ञानवाद देकर तर्क से समीक्षा करना सिखाया। धर्म के दलालो से सावधान कर आगाह किया की, शास्त्रों, पंडो और परंपरोओके दलदल में फसो मत।

बाबासाहब आंबेडकर ने देश का सविंधान लिखकर देश में नई क्रांती की सुरुवात की। बहुसंख्यांक समाज को संविधान द्वारा उनके हक तथा अधिकार प्रदान किये। लेकिन अनुयायी उनके विचारों के प्रति हतबल दिखाई दे रहे है। वे आपस मे बटे हुए है और अपनी अपनी शरणस्थली ढूंड रहे है। कोई भाजपा में, कोई  शिवसेना में तथा कोई कांग्रेस में शरण लेकर समाज के व्होटबेंक से उन्हें सत्ता में बिठा रहे है। वे समाज और उन पार्टीयोके बिच के बिचौले बने है। क्या उनके वर्तन में समाज का भविष्य दिखाई दे रहा है? कोई संसद में बैठे चुटकुले सुनाकर सांसदों का मनोरंजन करता है जैसे नर्तकी जमावड़े का मनोरंजन करती है। तो कुछ सांसद पाच साल तक मुहपर ताले लगाए बैठे होते है। क्या ऐसे लोग फुले आंबेडकरी विचारधारा के मुखंडे बन सकते है? की जिन्हें विचारधारा की ABCD  तक पता नहीं होती।

भीमा कोरेगाव के युध्द का गर्व करनेवाले लोग सिर्फ इतिहास का गर्व करना जानते है। लेकिन नए इतिहास का निर्माण करना उनके होश हवाश में नहीं होता। भाषणों तथा बातो तक सिमित रखते है। स्मारकों पर माथा टेकने से कुछ हासिल नहीं होता। उनसे प्रेरणा लेके जंग लढकर जितना और नया इतिहास का रचियता बनकर ही उन योध्दाओ के प्रति श्रध्दा व्यक्त की जा सकती है। भेडियो को कोई भी काटता है, शेर को नहीं। महापुरुषोने शेर बनने विचार दिया था।  

गुटों में बटे हुवे लोगो का हश्र वैशाली के लिच्छवी जैसा होता है। जिस जनता को अपना नेता चुनना तक  नहीं आता, क्या वे महापुरुषों के विचारों के वाहक बनकर उनके सपने साकार कर सकेंगे ? गुटों के नेताओ के साथ बहनेवाले इतिहास का निर्माण नहीं कर सकते। वे अपने जीवनी तक पैसा, हुन्नर  और समय बरबाद करते है। गुटबाज नेताओ को डंडा लगानेवाले सिर्फ क्रांती के वाहक बन सकते है। इसीलिए  इतिहास पर गर्व करो किंतु उसे साधन के तौर इस्तेमाल करना सिखना होगा, तभी तो नया इतिहास बनाकर महापुरुषों के सच्चे अनुयायी के रूप में प्रगट हो पाओगे।

मै किसी की वकालत करने के लिए नहीं लिख रहा हू। पर मुझे विश्वास है, आज का फुले आंबेडकरी नवयुवक देश की परिस्थिति और समाज की खस्ता हालत देखकर कुछ तो सोचता होगा! उसके सामने कुछ तथ्य रखु तो उसमे बुराई क्या है? मेरे ख्याल से देश में बामसेफ के जितने भी धड़े है, और दूसरे समविचारी संघटन है उनका एक ही सामरिक रसायन बनाकर देश में पैदा हुए समस्योके दौर के पथपर चलकर उत्तर (solution) ढूंढा जा सकता है। नवनिर्माण की किरणे वही खोजी जा सकती है। उससे और ज्यादा क्या लिखू ? बस यहा तक ही सिमित हू।

लेखक: बापू राऊत, 
मो.न. ९२२४३४३४६४, ई-मेल: bapumraut@gmail.com


4 comments:

  1. vada pav khanar ka?

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  2. Mahan vyaktiyo ko puja karke , unke adhuura kaam ko poora karne ka zimmedaari nahi udhana, dhoke bazo ke chalaki hai . Unke naam par dhanda chalane ka gaddaro ke daav hai . Mahapurusho se seekhna aur unke jaise kaam karte hue nayi itihas benana hi manavata hai , samaj ko aur sudharne aur badalne ke marg hai

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  3. Aaj jagatikaran aur uska dalal bene hindutva vaad , milkar sabhi aam janta par halla kar rehe hai . kamgar, kisan, dalit, adivasi , stree ityadi sabhi hissa fir se gulaam benaya jaa reha hai . isliye , apane apane preshno ko udhane ke saath , sabka mukti keliye ekata baddh sangharsh bhi anivarya hoga

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