भीमा कोरेगाव
दंगल के विरोध में जिन लोगोने आंदोलन किया उन्हें कोम्बिंग ऑपरेशन द्वारा अरेस्ट
किया जा रहा है. लेकिन जिन्होंने दंगा शुरू किया उनको अभीतक अरेस्ट नहीं किया गया.
वे खुले तौर पर घूम रहे है. बल्की दंगलखोर संभाजी भिडे और दिलीप एकबोटे कों पोलिस
सरक्षण दिया गया. चंद्रशेखर आझाद ने दंगलखोरो के विरोध में आत्मरक्षा के लिए आवाज
उठाई तो उसे रासुका लगा दिया. उना के अत्याचार पर जिग्नेश मेवानी ने मनुवादियोंके आव्हान
दिया तो उसे देशद्रोही कहा गया. लेकिन दलितोपर अभीतक जिन्होंने अत्याचार किया और
जिन्होंने ऐसा करनेके लिए उकसाया वे ना कभी गिरफ्तार हुए, ना कभी उन्हें जेल हुई.
वे खुलेतौर पर अत्याचारों और दंगल के मसीहा बन बैठे है. लेकिन इन अत्याचारों के
खिलाफ जो आवाज उठा रहे है, उन्हें पोलिस मार रहे और जेल में डाला जा रहा है. क्या
यह असहिष्णुता का सहिष्णुता पर विजय नहीं है? यह डेमोक्रासी का कौनसा अवतार है?
क्या भारत अब तालिबानी सहिंता की ओर चल
पड़ा है? क्या सहिष्णु भारत में सब असहिष्णु बनते जा रहे है? हम आज कौन से कगार पर
खड़े है? समझ में नहीं आ रहा.
बापू राऊत
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