एक समय रवीन्द्रनाथ टागोर ने कहा था, “ मेरा मानना है की भारत के कलेजे पर गरीबी का जो भारी बोझ पड़ा है, उसकी एक मात्र वजह है अशिक्षा।” विकास और सामाजिक प्रगति की प्रक्रिया मे
बुनियादी शिक्षा की जो भूमिका है, वह व्यापक और बेहद
महत्वपूर्ण है। आधुनिक विश्व मे किसी का
भी अशिक्षित होना एक कैद की जिंदगी जीने के बराबर है। हमारे वाणिज्यिक अवसर
और रोजगार की संभावनाए एंव सम्मान हमारी शैक्षिक योग्यता और उससे आनेवाली चपलता पर
निर्भर होता है। जागतिकीकरण और बाजारीकरन के इस दुनिया मे शिक्षा की जरूरत खासतौर
पर बढ़ती जा रही है।
भारत के स्वतंत्रोत्तर कालखंड मे आई सरकारोने शिक्षा
को बेहतर बनाने का वादा किया था। लेकिन वर्णवादी तथा सामंती सामाजीक व्यवस्था के
कारण यह वादा आजतक पूरा नहीं हो सका। नतीजा
यह हुवा की, भारत पूर्वी एशिया से इस मामले
मे काफी पिछड़ गया है। केवल ब्रिटिश काल से ही बहुसंख्य मागास समाज ने शिक्षा के
क्षेत्र मे पदार्पण करना शुरू किया था। जब ब्रिटिश भारत छोड़कर चले गए तब भारत की
वयस्क साक्षरता 18 प्रतिशत थी। ब्रिटिश पूर्व कालखंड मे भारत के बहुजन समाज को
वर्णव्यवस्था और धर्म के ठेकेदारोने शास्त्रो का सहारा लेकर शिक्षा के अधिकार से
वंचित कर दिया था। केवल उच्चवर्ण के ब्राम्ह्ण को ही पढ़नेका अधिकार था। इस दृष्टि
से ब्रिटिश भारत मागास वंचित बहुजनों के लिए शिक्षा का द्वार बन गया था। लेकिन
स्वतन्त्रता के बाद के वर्ष 2005-06 मे
भारत की हालत यह थी की 6-10 आयुवर्ग के करीब 20 प्रतिशत भारतीय बच्चे
स्कूली शिक्षा से वंचित थे और इस आयुवर्ग के करीब 10 प्रतिशत बच्चो ने तो कभी किसी
स्कूल मे अपना नाम दर्ज ही नहीं किया। भारत से काफी गरीब होने के बावजूद बांगला
देश ने शिक्षा मे भारत को पीछे छोड़ दिया।
तथा श्रीलंका भारत से आगे निकल गया। भारत का जीडीपी बढ़ने से गरीब खुशहाल होगा और
शिक्षा से वंचित नहीं रहेगा ऐसा कतई नहीं
है।
शिक्षा की असमानता के मजबूत मेल से भारतीय
समाज मे घोर विषमताए पैदा हुई है। महात्मा ज्योतिराव फुले ने कहा था, आपका सामाजिक, मानसिक एंव आर्थिक विकास न होने का मुख्य
कारण केवल और केवल आपका अशिक्षित रहना है। आर्थिक रूप से कमजोर वंचित लोगोंकों
अपनी बेहतरिन मांग के लिए उनका जातिगत विभाजन संगठित होने मे रुकावटे पैदा करता
है। जैसा की बाबासाहब आंबेडकर ने कहा था, ”जातिव्यवस्था केवल श्रम विभाजन नहीं है, यह
श्रमिकोंका विभाजन है।” इतिहास से मिली इन जातिगत असमानताओके साथ जुड़े सामाजिक
लोकाचार और पुरानी सोच अभी भी जीवित है। आज के परिपेक्ष मे अगर देखा जाए, तो वह मूलधारणा (पुरानी सोच) आज समाज और देशपर भारी हो रही है। समाजवादी
विचारक राम मनोहर लोहिया ने कहा था, “उचि जाती, धन-दौलत और अँग्रेजी का ज्ञान ये तीनों विशेषताए है, जीनमे से दो किसी के भी पास हो तो वह शासक वर्ग बन सकता है। वास्तव मे
अँग्रेजी का ज्ञान भारत मे व्यक्तिओ के लिए उन्नति के तरह तरह के दरवाजे खोलता है।
भारत का उच्चवर्ग अपनी पीढ़ी को अंग्रेजी ज्ञान देने मे अग्रेसर है, किन्तु वही वर्ग मागास वंचित समाजपर उनकी मातृभाषा थोपता है। ताकि वे
उनके लिए भविष्य का स्पर्धक न बने। उच्चवर्ग की दूषित मानसिकता के कारण भारत मे बहुजन
मागास समाज को विकास का अवसर मिलना असंभव सा है।
प्रकाशित सांख्यिकी पर प्रकाश डाले, एक भयावह रूप नजर आता है। देश मे कुल 16% दलित आबादी है। लेकिन 54.71%
दलितो के पास गजभर जमीनतक नहीं है। सरकारी नौकरीयो मे उनकी भागीदारी सिर्फ 3.95%
है। वही पब्लिक सेक्टर मे 0.93% और प्रायव्हेट सेक्टर मे 2.42% की भागीदारी है। केवल
0.86% दलितोंके पास चार पहिया गाड़ी है। 83% दलितो की आय 5
हजार रुपए महीने से ज्यादा नहीं। 2015-16 मे 2 करोड़ 30 लाख दलित बेरोजगार थे। वही
2018 मे, दलित बेरोजगारी की तादाद 8 करोड़ है। महज 1.8% दलित
आदिवासी उच्च शिक्षा पाने की स्थिति मे आ पाते है। यह स्थिति केवल आरक्षण के कारण
पैदा हुई है, अन्यथा नोकरियों तथा शिक्षा मे
दलितो/आदिवासियोंका का प्रतिशत शून्य रह जाता। फिर भी दलितो का आरक्षण खत्म करने के
पीछे भारत का उच्च वर्ग हाथ धो के पड़ा है। वे चाहते है दलित केवल बंधुवा मजदूर
बनकर रहे। हाल ही मे महाराष्ट्र लोक सेवा आयोग द्वारा प्रथम श्रेणी आफिसर की चयन
प्रक्रिया पूरी की गई थी और चयनित सामान्य वर्ग के पास विद्यार्थियों को नियुक्ति
पत्र देना था, लेकिन आयोग को जैसे पता चला की चयनित
विद्यार्थी मागास समाज के है, उन्होने नियुक्त पत्र ही रद्द
कर दिए।
सुप्रीम कोर्ट ने अल्पसंख्यांक शिक्षण संस्थाओ
मे ग्यारवी कक्षा एंव प्रथम वर्ष स्नातक के लिए मिलनेवाले आरक्षण को समाप्त कर दिया।
महाराष्ट्र राज्य मे कुल 2775
अल्पसंख्यांक शिक्षण संस्था है। उसमेसे केवल मुंबई मे 300 से अधिक शिक्षण संस्थाए
है। वंचित समाज के पास ना उनकी शिक्षणसंस्थाए है ना कोई वाली। ऐसे मे वे कहा जाए? वास्तव मे भारत का अल्पसंख्यक समाज आर्थिकदृष्टि से प्रगत और
सामाजिकदृष्टि से सन्मानजनक स्थिति पानेवाला है। समाज के ईसाई, सिंधी,गुजराती और जैन घटक अल्पसंख्यक ठहराए गए। उनका
भारत की राज एंव अर्थसत्तापर काफी दबदबा है।
इन अल्पसंख्य समुदायोंकों उनकी संस्कृति जतन करनेका पूरा हक है। इन शिक्षण
संस्थाओंकों सरकार की ओर से जमीन, बिजली, पानी तथा अन्य सुविधाए दी जाती है। लेकिन अब इन शिक्षण संस्थाओ मे
मागासवर्ग समाज के छात्राओ की आरक्षित सीटे का कोटा खत्म कर दिया है। यह भारत के
वंचित लोगोंकों शिक्षा से दूर करने का षडयंत्र है। संविधान के कलम 46 अनुसार मागास
तथा वंचित जातिवर्ग का शैक्षणिक, आर्थिक हित और सामाजीक शोषण
से सरक्षण करना सरकार की जवाबदेही है। लेकिन सरकारे वंचित समाज के प्रति संवेदनहीन
है।
शिक्षा व्यक्ति की सोचने की क्षमता बढ़ाकर
समझदारी पैदा करती है। अपने बंधनो के खिलाफ अगर कोई आवाज उठाएगा, तब उसका असरदार कारण शिक्षा होता है। इसके विपरीत,
अशिक्षा लोगो के राजनीतिक आवाज को दबाती है और इस तरह उनकी असुरक्षा मे प्रत्यक्ष
योगदान देती है। अशिक्षित एंव वंचित लोगो के लिए लोकतान्त्रिक अधिकारोका कोई मतलब
नहीं होता। केवल वोट का अधिकार मिलनेसे उनकी समस्याए हल नहीं होती। जिन्हे कानूनी
अधिकार प्राप्त हो चुके है वे अशिक्षा के कारण कभी भी उस अधिकार का उपयोग नहीं कर
पाते। क्योकि समझने की उनकी क्षमता काफी सीमित हो जाती है।
प्रोब के सर्वेक्षण नुसार 12 प्रतिशत स्कूलो
मे केवल एक शिक्षक नियुक्त था। सरकार सरकारी स्कूलो मे शिक्षक के नियुक्ति के लिए
उदासीन है। कम वेतन देकर शिक्षकोंकों रखा गया है जिसमे इनकी योग्यता असपष्ट और
पढ़ाने का स्तर काफी नीचे होता है। यह
सरकारी स्कूलो का लेखाजोका है। ऐसे भेदभाव पूर्ण व्यवहार से शिक्षा का स्तर काफी
नीचतम रहा है। ‘प्रोब’ के
निष्कर्ष यह बताते है की, राज्य के स्कूलो मे साल का औसतन
200 दिन पढ़ाई होनी चाहिए। लेकिन जब शिक्षकोकी गैरहाज़िर होने की दर करीब 20 प्रतिशत
हो और बच्चो के गैरहाज़िर होने की दर 33 प्रतिशत हो, तब एक
औसत दिन पर बच्चे और उसके शिक्षक के स्कूल मे संयुक्त रूप से हाजिर होने की
संभावना करीब 50 प्रतिशत ही मानि जा सकती है। इस तरह स्कूल मे पढ़ाई के दिन 100 ही
रह जाते। लेकिन कहानी यहा खत्म नहीं होती, इसमे 50 दिन
शिक्षणसबंधी गतिविधिया होती रहती है। यानी पढ़ाई वास्तव मे करीबन 50 दिन की ही होती
है। यह भारतीय सरकारी स्कूलोका वास्तव इतिहास है। मध्यप्रदेश मे 4000 स्कूलोमे एक
भी नियमित शिक्षक नहीं, उससे खतरनाक तो ये है की, 17649 स्कूलोमे केवल एक शिक्षक है।
देश मे स्कूली शिक्षा की पूरी व्यवस्था को
सुधारने, बल्कि उसका नवनिर्माण करने के लिए
इसे बेहतर बनाना बेहद महत्वपूर्ण है। इस सत्य को भी समझना जरूरी है की, उचि जाती के लड़कोंकी शैक्षणिक सफलता के बावजूद भारत की गुणवत्ता और
शिक्षा का स्तर उपेक्षाकृत नही है। वे गतिशील अर्थव्यवस्था और प्रगतिशील समाज का
निर्माण करने मे अक्षम रहे है। लेकिन भारत का यही धड़ा समानता की सरचनात्म्क दृष्टि
को नहीं समज पा रहा। वे निरंतर बहुसंख्यांक भारतियोंकि उपेक्षा कर रहे है। इस
उपेक्षा से देश का नुकसान होकर वह आर्थिक पिछड़ापन, जातीय
विभाजन और सांप्रदायिकता के दौर मे धकेलने की प्रक्रिया मे शामिल होने का पाप कर
रहा है।
19 सदी मे यूरोप और अमेरिका मे सरकारी संस्था
ही शैक्षणिक परिवर्तन का मुख्य आधार थी। साम्यवादी देशो मे भी सरकारी शिक्षा
व्यवस्थासेही तेजिसे परिवर्तन हुवा है। लेकिन
भारत मे कुछ लोग निजी स्कूलो पर निर्भरता की वकालत कर रहे है। वे प्रस्तुत जमीनी
हकीगत से परे है। वास्तविक समस्या को वजूद न देकर निजीकृत व्यवस्था के हात मे भारत
के शिक्षा की बागडोर देना एक बड़ी समस्या और भूल होगी। नेताओ और अफसरो की भागीदारी
निजी क्षेत्र मे अधिकतर बढ़ी है। कही मे उनका मालिकाना हक भी है। इसीलिए वे सरकारी शिक्षण व्यवस्था को नष्ट कर
उसकी बागडोर अपने अपने निजी शिक्षा संस्थान को देना चाहते है। कई कालेजो को
स्वतंत्र यूनिवहरसिटी का दर्जा प्राप्त हो रहा है। कालेजोकी स्वायत्ता बढाकर सरकार
अपना नियंत्रण तेजी खत्म कर रहा है। निजी स्कूल की मुनाफाखोरी एक अनिवार्यता है। इस
स्थिती मे, क्या गरीब परिवार और वंचित समुदाय स्कूली
शिक्षा हासिल कर पाएँगे? दूसरी तरफ सरकारी स्कूलो को ज्यादा
जिम्मेदार और जवाबदेही बनाने की मांग करने वाले मध्यम वर्ग के लोगो को अपने तरफ
आकर्षित करनेका काम भी निजी स्कूल प्रबन्धक कर रहे है।
आज के स्थिति मे सरकार के शिक्षा के बाजारीकरण
करने के नीतियोंका विरोध नहीं हो रहा। जिस वंचितोने आवाज उठानेका प्रयास किया उनका
हाल रोहित वेमुला तथा चन्द्रशेखर आझाद जैसा किया जा रहा है। संसद मे मायावती को बोलने
तक नहीं दिया। इस असमानता के दौर मे कुछ लोगो के साथ पुलिस सन्मानजनक व्यवहार करती
है चाहे उन्होने कुछ भी काली करतुते की हो, तो बाकी
लोगोंसे मामूली संदेह के आधार पर उनसे बदसलूकी की जाती है। इस असमानता के तरफ कौन
ख्याल देता है? देश के प्रशासन मे इनकी कोई नहीं सुनता। सरकार
धर्मवादी बनकर महाविद्यालयो मे विद्यार्थियोंकि गुणवत्ता बढ़ाने के बजाय धार्मिक
किताबे बाट रही है। जिस देश मे स्कूलोसे ज्यादा मंदिरोकी घंटिया बजती हो, वह देश गरीबी, भूकमरी और मानसिक गुलामी का शिकार
होना तय है। साल दरसाल सरकार के बजेट से शिक्षा के आकडे लूटते जा रहे। सामाजिक
विकास को भूलकर भाजपा सरकार गौविकास कर रही है और मानवता को दीवारपर लटका दिया है।
सरकारे किसी भी की हो, सामील लोगोंकी मानसिकता बदलना बहुत जरूरी
है। अन्यथा अशिक्षा के कारण भारत खुद आनेवाले अंधकारसे अपनी जवाबदेही टाल नहीं सकेगा।
लेखक: बापू राऊत
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