अमेरिका, अप्रवासी निति संस्थान के नुसार, विदेशोमे
रहनेवाले भारतीयोंके लिए अमेरिका दूसरा सबसे लोकप्रिय गंतव्य स्थान है। अनुमान है
की, यु.एस.डायस्पोरा 1980 में भार्तियोंकी आबादी लगभग 2,06,000
से बढकर 2021 में लगभग 2.7 मिलियन हो गई है।2010 की जनगणना के अनुसार 3.5 मिलियन
से अधिक दक्षिण एशिआइ लोग रहते थे । ग्रुप साउथ एशियन अमेरिकन लीडिंग टुगेदर के
रिपोर्ट नुसार अमेरिका में लगभग 5.4
मिलियन दक्षिण एशियाई लोग रहते है। उसमे अधिकांश लोगोंकी जेड भारत, बांगला देश,भूटान,नेपाल,
पाकिस्थान और श्रीलंका में है।
अमेरिका मे कौन करते है जातिगत भेदभाव
आखिर, अमेरिका जैसे प्रगत राष्ट्र में कौन कर रहा है
जातिगत भेदभाव? वे कौन शिकारी है, जो लोगोंको जातिवाद का शिकार बना रहे है? आज के विज्ञान और
आधुनिक युग में, जहा बड़े बड़े पढ़े लिखे और उद्योगी समाज है, वहा ऐसी जातिगत भेदभाव की घटनाए किसी शर्मनाकी से कम नहीं है।
भारत मे ब्रिटीश काल के समय से सवर्ण जातीया (मुख्यत: ब्राम्हण जाती) युरोप
एंव अमेरिका मे जाकर बसे। उसके बाद भी गंतव्य का यह सिलसिला जारी था। लेकिन उन्होंने जातेसमय जातिगत भेदभाव की छिलके भी अपने साथ ले गए। भारत के आजादी के कुछ सालो बाद ओबीसी, दलित एंव आदिवासी समुदाय के शिक्षित लोग नोकरी एंव शिक्षा के
लिए यूरोप और अमेरिका जाने लगे थे। इन अपनेही भारतीयों के साथ सवर्ण समाज के लोग जातिगत भेदभाव करने लगे है। याने सवर्ण हिंदू अन्य बहुजन हिंदूओ पर जातिगत भेदभाव कर रहा है।
भेदभाव का स्वरूप क्या है?
भारत
की जाति व्यवस्था की उत्पत्ति जन्म के आधार पर 3,000 साल पहले हुई थी. वर्णव्यवस्था द्वारा जबरदस्ती
थोपे गए व्यवसाय प्रणाली सदियों से मुस्लिम और ब्रिटिश शासन के तहत विकसित हुई है।
उन लोगोंको अधिक पीड़ा दी गई थी, जो
सबसे निचले पायदान पर थे. भारत में जातिवाद १९४८ से प्रतिबंधित होने के बावजूद आज
भी जारी है.
अमेरिका में जातिगत भेदभाव रहने की जगहे, शिक्षा के क्षेत्र और कामकाज (नोकरी) क्षेत्र में सामने आ रहा है। जहा भारतीय लोग अपनी भूमिका निभाते हैं। इस जातिगत भेदभाव के कारण बहुजन समाज के हिंदू अपनी जाती छुपाकर रहते है, जहा
सवर्ण हिंदू छाती ठोककर अपनी जाती को उजागर करके गौरव महसूस करते है। वहा सरनेम एंव खुलेआम जाती
पूछकर पता कर लिया जाता है। यहाँ से जातिगत भेदभाव की सुरुवात होती है।
प्रस्ताव के समर्थक एंव विरोधी अनिवासी
भारतीय
परिषद् के प्रस्ताव के लिए २०० से अधिक सगठनों ने अपनी सक्रियता दिखाई। अध्यादेश के समर्थन में
परिषद् को ४००० से अधिक मेल प्राप्त हुए थे। सिएटल काउन्सिल के भारतीय अमेरिकी सदस्य क्षमा सावंत
ने इस अध्यादेश को प्रस्तावित किया था।अमेरिकी कांग्रेस सदस्या एंव भारतीय वंशज प्रमिला जयमाला ने अध्यादेश का
स्वागत किया। सिएटल निवासी योगेश माने, काउंसिल का फैसला सुनते उन्होंने कहा, "मैं भावुक हूं, क्योंकि यह पहली बार है जब इस तरह का अध्यादेश दक्षिण एशिया के बाहर दुनिया
में कहीं भी पारित किया गया हो। यह एक ऐतिहासिक क्षण है। ओकलैंड, कैलिफ़ोर्निया स्थित इक्वैलिटी लैब्स के कार्यकारी निदेशक
थेनमोझी सौंदरराजन ने कहा की, इस निर्णय से हमने एक
सांस्कृतिक युध्द जित लिया है। जातिगत भेदभाव रोकने के
लिए कानूनों की सक्त जरुरत थी। बहुजन हिंदूओंको लगने
लगा है की, अब हम यहाँ अकेले नही, बल्कि हमारे साथ कानून भी है।
सिएटल
प्रस्ताव के विरोध में सवर्ण हिंदू समाज विरोध कर रहा था। हिंदू अमेरिकन फ़ौंडेशन प्रस्ताव का विरोध किया था। यह संगठन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुडा है। लिसा हर्बोल्ड ने विरोधियों के इस तर्क को ख़ारिज किया कि, यह कानून हिंदुओं को अलग करता है।
उन्होंने कहा की यहाँ की छोटी आबादी इस भेदभाव को महसूस कर रही है. इसीलिए यह तर्क
महत्वपूर्ण नहीं है। सिएटल के इस अध्यादेश का संदेश साफ़ है। उसने भारत के जातिवादी भेदभाव को दुनिया के सामने उजागर कर
दिया। और
दुनिया के अन्य देशोंको “जाति” को वंशवादी भेदभाव में अंतर्भूत कर कानून के दायरे में
लाने के लिए दरवाजे खुले करवाता है। अब धर्म, संस्कृति
और परंपरा के नाम पर किसे भी मानसिक गुलाम बनना पसंत नहीं। वे अपने सन्मान
और स्वाभिमान के लिए क्रांति के लिए भी तैयार है। भारत के
लोग, जो मनुवादी व्यवस्थापर गर्व करते है, क्या वे इससे सबक सीखेंगे? यह एक बड़ा सवाल है।
लेखक: बापू राऊत
जयभीम ,वास्तव का लेखा जोखा दिया है. अभिनंदन l
ReplyDeleteविजय रणपिसे, मुंबई
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