Saturday, October 23, 2021

लखबीरसिंग हत्या की जड़े जाति-धर्मवाद और कुटिल मानसिकता में


 बाबासाहब आंबेडकर ने कहा था, मेरा ऐसा कोई धर्म नहीं, जिसे मैं अपना समझकर गले लगा लू! डॉक्टर आंबेडकरने ऐसा क्यों कहा होगा? इसका उत्तर देश के हर कोनेमें होती रोज़मर्रा हत्या से मिलती है। दलितोंकों किसी भी कारण से मारापिटा जाता है, दलित महिला रोज शारीरिक अत्याचार का शिकार बनती है। उन्हे क्रूरता से मानवीय अधिकार वंचित किया जाता है। भारत के तथाकथित सभ्य समाज को ना इसका गुस्सा आता है, ना आरोपियोंके सजा के लिए रोड पर आता है। सच तो यह भी है, दलित भी अन्याय सहन करने की आदत बना बैठा है। जो आवाज उठाता है, उसे पुलिस या दबंगियों द्वारा जेल में ठूसकर मारा जाता है। आज के भारत का यही एक क्रूर सच है।


किसान आंदोलन का मुख्य केंद्र रहे सिंधु बोर्डरपर कुछ सिख निहंगोंने लखबीरसिंग नामक व्यक्ति के हातपैर काटकर उसे स्टेज के सामने उलटा लटका दिया। न्यूज लॉन्ड्री के रिपोर्ट के अनुसार, एक निहंग सिख उसका कटा हाथ लेकर चल रहा था, स्टेज के पास पहुंचकर उन्होंने उसे पोलपर उल्टा लटका दिया। लखबीरसिंग के माथे और आंख से खून निकल रहा था। इसके बाद भी निहंगोने उसका पैर काट दिया। और बाद मे निहंगोने जयकारे के नारे लगाए। 

यह घटना मानवता पर कलंक और बेहद शर्मनाक है। साथही, भारत मे जातीवाद की घृणात्मक जड़े उजागर करता है। निहंगोने आरोप लगाया कि, लखबीर सिंह ने गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की थी. बेअदबी क्या है? कैसी बेअदबी? समानता और न्याय के नायक रहे गुरु नानकजी के ग्रंथ साहिब को हाथ लगाना, हातोसे उठाकर उसे पकड़ना और गले लगाना क्या बेअदबी हो गई? किसीभी कौम का सीख गुरु ग्रंथसाहिब का अपमान नहीं कर सकता। गुरुग्रंथ क्या इतना कच्चा कागज है, जो किसीभी मानव से अपवित्र हो जाएगा? क्या किसी अमरिंदरसिंग, नवज्योतसिंग सिद्दू, प्रकाशसिंग बादल जैसे लोगोने गुरुग्रंथ को उठाकर चौराहे पर घुमाया होता, तो क्या उनके भी हाथ पैर तोड़कर बैरिकेड पर लटकाया गया होता? इसका उत्तर धर्म के ठेकेदार निहंगोने देना चाहिए। 


क्या लखबीरसिंग की हत्या उसकी दलित पहचान होने से हुई है?  

बलविंदर सिंह, जो खुद को पंथ अकाली निर्वैर खालसा उडना दल का प्रधान बताता हैं की, उसने लखबीर का हाथपांव काटा। बलविंदर सिंह को इस हत्या पर गर्व है। अब सामने आ रहा है की, बहुसंख्य सीख इस हत्या को सही ठहरा रहे है। इससे समान हको की गुहाई देनेवाले गुरु नानक के आत्मा को कितनी पीड़ा होती होगी। उन्होने कभी सोचा नहीं होगा की, भविष्यमे मेरे पंथ (धर्म) में आनेवाले लोग कभी असमानता का शिकार होंगे और समाज में ढोंग पैदा करेंगे। लखबीरसिंग की हत्या साफसाफ जातिवादी हत्या है। उन्हे दलित होने का खामियाजा भुगतना पड़ा है। 

 

ऐसे जातिवादी जमीनदारों के किसान आंदोलनका क्यों समर्थन करे?

इस हत्या के बारेमे किसान आंदोलन की भूमिका संदिग्ध और पूरी गोलमाल दिख रही है। जिस तरह, किसान नेताओने लखीमखीर मे गाड़ी से कुचलने वाली घटना का विरोध किया, बड़ा आंदोलन कर मुवावजे और सरकारसे नोकरी की मांग की गई, उसी तरह की निंदा और मुवावजो की मांग लखबीरसिंग के बारे में क्यों नहीं की गई? केवल निषेध करना और निहंग हमारे आंदोलन का हिस्सा नहीं है, यह कहने से नहीं चलेगा। अगर निहंग आपके आंदोलन का हिस्सा नहीं है, तब निहंग इतने दिनोसे आपके आंदोलन में और स्टेज के पास क्या कर रहे थे? क्या किसान आंदोलन धार्मिक आंदोलन है, जहा किसी एक धर्म के प्रतिकोंकों और धार्मिक लोगोंकों रखा गया है। क्यों नहीं निहंगों को वहासे तुरंत हटाया गया। प्रतीत हो रहा है, किसान आंदोलन केवल उच्चवर्गीय जमीनदारों का आंदोलन है। केवल मजबूरी मे पंजाब के भूमिहिन खेती मजदूरोंका  इस आंदोलन मे सहभाग है। ये बड़े किसान भूमिहिन खेती मजदूरोंका हमेशासे शोषण करते आ रहे है। ऐसे जातिवादी किसान आंदोलन मे अपना बली देकर समर्थन करना बेवकूफी है।

 

दलितोंकी सेवा लो और बादमे फेक दो कबतक चलेगा ? 

   

जाब में 30 प्रतिशत जनसंख्या दलितोंकी है, लेकिन वहा बहुसंख्य दलित भूमिहिन और मजदूर है। यही हालात पूरे देश में है। नेताओ और आंदोलनकर्ताओ द्वारा आंदोलनो में अधिकसे अधिक संख्या दिखानेके लिए दलित आदिवासियोंका इस्तेमाल किया जा रहा है। संख्या के आधार पर आंदोलनसे फायदा उठाकर दलित-आदिवासियोंकों हाशियोपर फेक दिया जाता है। राजनीतिक पार्टिया केवल सत्ता के लिए उनके वोट से मतलब रखती है। लेकिन सत्ता मिलतेही दलित-आदिवासियोंका शिक्षा का अधिकार, नोकरीया देने का वादा और छतके नीचे रहने का अधिकार छिना जाता है। कड़ी धूप मे, बारिश में और कड़कड़ाती ठंडीयोमे, परीक्षाओंके समयमें दलित-आदिवासियोंके रहने के घर, झोपड़िया तोड़ी जाती है। अपने ही देश में उन्हे अपने मूलभूत अधिकारोसे बेदखल किया जाता है। रोने और भूखे रहने के सिवाय हात में कुछ नहीं बचता। क्या उनके गरीब, असहाय और दलित होने के कारण यह सब हो रहा है? हमारा प्रश्न है, ऐसा कबतक चलेगा? 


अब नकारा सिविल सोसायटी चुप क्यो है? 


भारत मे तथाकथित सिविल सोसायटी, सरकारे और प्रशासन की भूमिका दलित-आदिवासियोंकों न्याय देने के विपरीत रही है। वे अन्य देशोमे हो रहे मानवाधिकार हनन और अत्याचारो के खिलाफ बोलते और लिखते है, लेकिन अपनेही देश मे दलितोपर हो रहे मानवाधिकार हनन और अत्याचारोपर चुप्पी बनाए रखते है। सिंधु बॉर्डर हुई लखबीरसिंग की हत्यापर भी वे हमेशा की तरह चुप रहे। हाथरस मे दलित युवतीपर हुए अत्याचार और आधीरात मे उसे जलाए जानेपर भी चुप रहे। दलितोंके लिए वे कभी हाथ मे कैन्डल लेकर मोर्चा नहीं निकालते। वे हमेशा उनकी लिंचिंग पर मौन धारण करते है। लेकिन उचि जातियोपर जब कोई हादसा या अत्याचार होता है, तब उनका रौद्र रूप देखनेलायक होता है। निर्भया जैसे कांडमे सरकार को चेतावनी देकर निर्भया के नामपर कानून बना लेते है। सिविल सोसायटी की यह दोगली नीति उनके “सिविल” होने पर ही कलंक लगाती है। इसीलिए लखबीरसिंग की हत्या कट्टर जातिवाद, धर्मवाद और कुटिल मानसिकता का परिणाम है ऐसे कहने मे संकोच नहीं होना चाहिए।  


लेखक: बापू राऊत


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