भारत में कई धर्म और विचारधाराएं सह-अस्तित्व में हैं। इसलिए भारत का विश्व में एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश के रूप में सम्मान है। भारत में मुख्य धर्म वैदिक (हिंदू), बौद्ध धर्म, जैन धर्म, इस्लाम और ईसाई धर्म हैं। भारत का संविधान (अनुच्छेद 25) सभी नागरिक को धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। अत: सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद कोई भी व्यक्ति अन्य धर्म और उसके सिद्धांत सही लगने पर उस धर्म को स्वीकार कर सकता है। और तत्वतत्वों के आधार पर अपना जीवन व्यतीत कर सकता है। भारत में अबतक अनेक धर्मांतरण हुए हैं। लेकिन अब कुछ राज्यों ने धर्मांतरण पर रोक लगा दी है. फिर भी कुछ जगहों पर धर्मांतरण हो रहे है। धर्मान्तरण का मतलब देशांतरन नही है, बल्कि अपने उत्थान के लिए, लिया गया उचित कदम है। फिर भी, सबसे बड़ा सवाल यह है कि, इस तरह के धर्मांतरण क्यों होते हैं? इसके पीछे क्या कारण हैं? यह जानने के लिए इतिहास में जाना होगा।
सवर्णों का धर्मांतरण
भारत मे हिंदू धर्म से दूसरे धर्मों में धर्मांतरण होना
इतिहास रहा है। लेकिन अन्य धर्मों से हिंदू धर्म में धर्मांतरण की संख्या नगण्य
है। केवल हिंदू धर्म कि निम्न जातियाँ हि धर्मांतरण करती ही ऐसा नही है। 19
वीं सदी तक लोग अपनेही धर्म से बंधित रहते थे । कोई भी दूसरे धर्म
में धर्मांतरण करणे का साहस नहीं करता था, क्योंकि धर्मत्याग
को एक भयानक पाप माना जाता था। हालांकि, 1843 में महाराष्ट्र
के मराठवाडा क्षेत्र के शेषांद्री गोविंद नाम के एक ब्राह्मण के बेटे नारायण और
श्रीपत ने ईसाई धर्म अपना लिया था। बाबा पदमनजी, बाळ गोपाळ
जोशी, निलकंठशात्री जोशी, रामकृष्ण
मोडक, रेव्हरंड टिळक, गोविंद काणे,
पंडिता रमाबाई (रमाबाई डोंगरे; १८८३ ) जैसे
ब्राम्हण समाज के लोगो ने ख्रिश्चन धर्म को अपनाया था। ईसाई मिशनरी का मानवतावाद,
दया, क्षमा और शांति जैसे उपदेश इन लोगों पर
छाये रहे। कुछ लोगों ने धर्म को त्यागना सुविधाजनक समझा क्योंकि, हिंदू धर्म में रहते हुए मानवता और समतावादी सुधारों को अंजाम देना बहुत
कठिन था। उपनिषदों और वेदों को पढ़ने के बाद, प्रार्थना
समाजी पंडिता रमाबाई हिंदू धर्म के प्रति घृणा और खेद महसूस करने लगी थी। पंडिता
रमाबाई ने वेद, पुराण और मनु सहिंता के ठोस प्रमाण देकर
उन्होंने 'द हाई कास्ट-हिंदू वुमन' नामक
किताब में सवर्ण महिलाओं की दासता और प्रताडना का खुलासा किया है। उनमें से कुछ
लोगोने धर्मग्रंथो की
निन्दा कर विशुद्ध रूप से तर्कवादी विचारोंका प्रचार किया, जबकि
अन्य ने मानव सुधारों के कार्यान्वयन के लिए कानून बनाने का प्रयास किया।
सामाजिक बदलाव का विचार
भारत में, पश्चिमी
ज्ञान के उदय तक रूढ़िवादिता और अमानवीयता प्रबल रही। मनुस्मृति संहिता के अनुसार
समाज के कार्यकलाप कार्यान्विनित हो रहे थे। वैदिक धर्म के प्रतिपादक मनु ने आदेश
दिया था कि, महिलाओं और निचली जातियों को किसी भी तरह की
स्वतंत्रता की अनुमति नहीं है। संतो ने भी यहां जातिवाद और जातिगत भेदभाव के ढांचे
को देखते हुए भी सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया।
भारत में अंग्रेजों के प्रवेश के बाद, यहा कानून का शासन,
आधुनिक शिक्षा और विचार प्रणाली के साथ-साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता और
बौद्धिकता की अवधारणाएँ अपनी जड़ें जमाने लगीं। इसके बाद जैसे-जैसे शिक्षित युवकों
का विवेक जाग्रत हुआ, अपने विचार को आगे बढाते उन्होंने कहा
कि धर्म, शास्त्र और जातिव्यवस्था मानवनिर्मित है और उसमे
परिवर्तन किया जा सकता है।
अँशबर्नर, एक
ब्रिटिश नौकरशाह था, जिसने हिंदू महिलाओं को chartered
libertines याने सनदी स्वेच्छाचारिणी कहा। नव-शिक्षित युवकों को यह
बुरा लगा। इस स्थिति के लिए उन्होंने हिंदू धर्मशास्त्रों को जवाबदेही समझा।
अंग्रेजों द्वारा किए गए तिरस्कारीत जवाब में, लोकहितवादी,
महात्मा फुले, गोविंद रानडे, गोपाल आगरकर और नाना शंकरशेट जैसे युवकोने पहले अपने धर्म में सुधार लाने
के लिए धर्मशास्त्र और रूढ़िवादी परंपराओंकी आलोचना
शुरू कर दी। लोकहितवादिनी ने कहा, अब पुरानी विद्या बेकार हो
गई है और मनु के वचन समाप्त हो गए हैं। जाति व्यवस्था और उसमें ब्राह्मण के
वर्चस्व को अस्वीकार करते हुए उन्होंने प्रश्न किया की,
अन्य देशों में इस प्रकार की जाति व्यवस्था क्यों नहीं है? उन्होंने कहा, जातिवर्चस्व, आस्तिकता
और अंधविश्वास, अस्पृश्यता और ब्राह्मणों की विरासत भारत के
पतन के प्रमुख कारण थे। आगरकर कहते हैं, हमने शूद्रों और अतिशूद्रों
को अपने बीच में सन्मान और आदर न देने के कारण, वे एक जैसे
ईसाई धर्म को अपना रहे है । जातिगत भेदभाव के कारण हमारे समाज ने भाईचारा, दया, क्षमा, शांति और परोपकार
के मूल्योंको खो दिया है । उन्होंने आगे कहा था कि, शुद्रो
और अतिशुद्रो में जैसे-जैसे ज्ञान का प्रसार होगा, वे
ब्राम्हणोंको अपने पिछड़ेपन के कारण पूछेगे और एक दिन आपके भू देवत्व
(ब्राम्ह्नोंके) के विरुद्ध विद्रोह कर देंगे ।
सनातनियो द्वारा नए विचारोंका विरोध
जैसे ही सुधारवादी युवकों ने सामाजिक परिवर्तन के बारे में
सोचा, रूढ़िवादियों
ने उनकी नई सोच और नए समाज के निर्माण के लिए विरोध किया। नई विचारधारा की स्थापना करके पोथियों के महत्व को कम आकने की सुधारंकोके
चुनौती का रूढ़िवादियों ने विरोध किया। यहाँ की गलत रूढिया, कर्मठता,
अधर्मी प्रथाओं, उच्चानिच, वर्णभेद और स्त्रियों की दासता की वकालत करते हुए उसपर अडिग रहे। यहीं से
सुधारकों और अनर्थकारियों के बीच संघर्ष शुरू हो गया। सनातनियोने सुधारकों के
विचारों को रोकने के लिए नए नए संगठन बनाए। आज के समय में इन संगठनो ने पूरे देश
में वैचारिक प्रबोधन करनेवाले व्यक्तियों और संस्थाओं को नष्ट करने का बीड़ा उठाया
है. देश की बर्बादी और सौहार्द बिघाडने के क्रियाकल्पो में वे अधिक लिप्त हो गए
है. ।
हिंदू धर्म में जातिगत असमानता के कारण, धर्मशास्त्रों का कहना है कि शूद्र
(ओबीसी)-अतिशूद्र (अनुजाति) लोग धार्मिक क्रियाकल्प के मामलों में सम्मान के पात्र
नहीं हैं। काल्पनिक एंव षडयंत्रकारी ग्रन्थोंका आधार लेकर अब्राम्हण (बहुजन)
लोगोंके सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकारों पर हमले किए जाते है । संविधान द्वारा
प्रदत्त अधिकारों और स्वाभिमान को जगाकर प्रचलित परम्परा के विरुद्ध कार्य करने पर
सवर्ण रूढ़िवादी लोग शारीरिक आक्रमण (मारना, जिंदा जलाना,
बेइज्जत करना) और आर्थिक क्षति (घर जलाना, खेत
जलाना) करते हैं। हिन्दू धार्मिक व्यवस्था द्वारा पैदा की गई आर्थिक असमानता के
कारण शूद्र (ओबीसी)-अतिशूद्र (अनु जाती) शिक्षा, रोजगार और
व्यवसाय से वंचित हैं। इसलिए अपने ही स्वतंत्र देश में उनकी स्थिति निचले स्तर पर
पहुच गई । उन्हें महसूस हो गया है कि, हम अपने ही धर्म के
गुलाम हैं. इसीलिए उन्होंने अपने सर्वांगीण विकास के लिए दूसरे धर्मों के विकल्पों
की तलाश शुरू कर दी।
ऐसे में अगर, कोई दूसरा धर्म मदद और दया का हाथ देता है,
उस स्थितिमें अगर ओबीसी, अनु.जाती और जनजाति के लोग इन धर्म का स्वीकार
करते हैं, तब यह स्थिति निर्माण होने के लिए उनका पिछला
हिंदू धर्म ही जवाबदेही है। क्योंकि धर्म के ठेकेदार प्रथाओं और सिद्धांतों को
बदलने को तैयार नहीं होते। हिंदू धर्म से जिन परिवारोने हिंदू धर्म को त्यागकर
ईसाई धर्म अपना लिया है, वे आज अधिक उन्नत हो
गए। लेकिन, जो परिवार बिना धर्मांतरण के हिंदू ही बने रहे,
उनकी शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति खराब है और वे अभी भी सांस्कृतिक
अन्याय के शिकार हैं। समाज में ऐसे कई उदाहरण हैं। जिन हिन्दुओ ने मुस्लिम धर्म का
स्वीकार किया, वे जाति के कलंक से मुक्त हो गए और मस्जिदो
में बिना भेदभाव से एकसाथ नमाज पढ़ते है। अब, जाती के नाम पर
उनकी कोई प्रताड़ना नहीं होती। इसीलिए धर्मांतरण को मानव
जीवन के विकास का एक महत्वपूर्ण समझना चाहिए ।
“गर्व से कहो” यह शब्द पाखण्ड है, यह शब्द यथास्थिति बनाए रखता है, नवनिर्माण को रोकता
है।
डॉक्टर बाबासाहेब अम्बेडकर के वैचारिक आह्वान का समर्थन
करनेवाले अनु जाति के जिन समुहोने हिंदू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म को अपना लिया
है, आज वे अपनी
वैचारिक सिध्दांत की गहराई और शैक्षणिक प्रगत तथा आर्थिक उन्नत हो गए हैं। उन्होंने
अपनी नई स्वतन्त्र सांस्कृतिक विरासत बना ली है। डॉ. अम्बेडकर की तर्कवादी सोच और
गौतम बुद्ध के सादगी, समानता और मानव विकास के विकसित
धार्मिक दर्शन ने उन्हें बदल दिया है। अतः अनु जाति के जो समूह बिना बौद्ध धर्म
अपनाए हिन्दू बनकर रह गए, उन्हें यह पता लगाना चाहिए कि,
उनके पिछड़ेपन के असली क्या कारण हैं। आज हिंदू धर्म में जातिगत
मानसिकता और जातिव्यवस्था का बोझ उठानेवाले सभी गैर-ब्राह्मण जातियां
(ओबीसी.अनु.जाती, जनजाति) शैक्षणिक, सांस्कृतिक
और आर्थिक क्षेत्र में पिछड़ गए हैं।
धर्म के भीतर सुधार की जरूरत
हिंदु धर्म की रक्षा का मतलब क्या है? वर्णव्यवस्था को हमेशा कायम बनाए रखना,
जातिवाद को जारी रखना, श्रेष्ठता की भावना को
बनाए रखना, ब्राह्मणों को उचित दर्जा देना, महिलाओं और शूद्र समूहों द्वारा मनुस्मृति का पालन करना। यदि, यह हिन्दू धर्म की रक्षा का कवच है, तो सांस्कृतिक,
शैक्षिक विकास, समानता, आर्थिक
उन्नति और मानवाधिकारों का क्या? रूढ़िवादीयोने इस प्रश्न का
उत्तर देना चाहिए। ‘धर्मांतरण विरोध’ जैसे
कानून द्वारा 'मानव विकास' को कैद किया जा सकता है, लेकिन ऐसा समाज “बंधुवा मजदूर” के समान होगा।
यदि हिंदुओं के धर्मांतरण को रोकना हैं, तो हिंदू धर्म में सुधार करने की बहुत बड़ी
आवश्यकता है। ऐसे स्थिति में, उन धार्मिक ग्रंथोंको हटाना
होगा, जो अपमानजनक धार्मिक प्रथाओं, उच-नीचता,
जातिवाद और महिलाओं की गुलामी को बढ़ावा देते हैं, साथ ही भोंदू बाबा और रूढ़िवादी संस्थानों पर लगाम लगाना होगा। इतना ही
नहीं, संविधानिक कार्रवाई के माध्यम से “मानव विकास” के समान अवसर प्रदान करने होंगे। गौतम
बुद्ध, महावीर, नानक, रविदास, कबीर, नामदेव और गाडगे
महाराज जैसे संतों के तर्कवादी विचारों को जगाने का एक नया युग शुरू करना होगा।
बापू राऊत
लेखक और विश्लेषक
ई-मेल: bapumraut@gmail.com
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