आज के समय लद्दाख
भारत का एक केंद्रशासित प्रदेश है। जब जम्मू काश्मीर पूर्ण राज्य के स्वरूप में
था, तब लद्दाख जम्मू काश्मीर का अभिन्न अंग था। लद्दाख सामरिक दृष्टी से भारत का
महत्वपूर्ण प्रदेश है। क्योकि लद्दाख की सीमाए भारत के अंतर्द्वंदी पाकिस्तान और
चीन के साथ जुडी है। भारत के स्वतंत्रता के बाद लद्दाख को हड़पने का प्रयास
पाकिस्तान ने १९४८ में, तथा चीन द्वारा १९६२ में किया गया था। लेकिन लद्दाखवासियोने भारतीय सेना का
साथ देकर १९७१ के युध्द में पाकिस्तान के बाल्टिस्तान क्षेत्र से तुरतुक और थांग
का भूभाग वापिस ले लिया। लद्दाखवासियोंको भारत के प्रति अपनापन एंव जो श्रध्दा रही, वह अद्वितीय है।
इसका मुख्य कारण भारत गौतम बुध्द की कर्मभूमि होना एंव लद्दाख के लोगो में बौध्द
धर्म के प्रति दृढ़ आस्था रहना है। लद्दाख में इसाई धर्म के प्रसार के लिए ब्रिटिश, जर्मन, इटली एंव
हंगेरी से इसाई मिशनरी आये। उन्होंने यहाँ पहले लद्दाखी एंव तिब्बती भाषा सीखकर
बौध्द धर्म को जाना। लद्दाखी -अंग्रेजी और जर्मनी शब्दकोष बनाए।
लद्दाख की धार्मिकता एंव पारंपरिकता तिबेटी बौध्द धर्म से
अधिक जुड़ती है। तिब्बत महायानी धर्म एंव संस्कृति का केंद्रबिंदु रहा है। इसीलिए लद्दाखवासी
आध्यात्मिक एंव दर्शन के संदर्भ में तिब्बती लामा की तरफ अधिक देखते है। दलाई लामा
उनके लिए अध्यात्मिक गुरु है। चिनद्वारा तिब्बत को हथियाने के उपरांत महायानी
संप्रदाय के लिए लद्दाख ही इस संप्रदाय का उत्तराधिकारी बना है। हालाकि धर्म की
कोई सीमा नहीं होती, किंतु मर्यादित भूभाग के लीए ऐसा कहा ही जा सकता है। लद्दाख
के इतिहासकारों का मानना है की, इस क्षेत्र में बौध्द धर्म का प्रवेश सम्राट अशोक
के शासन काल अर्थात 300 ई.पूर्व में हुआ। उस काल में स्थापित स्तूप, जिसे स्थानीय
भाषा में छोरतेन के नाम से जाना जाता है, उसके अवशेष आज भी उपलब्ध्द है। लद्दाख के जंस्कर में
स्थापित स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक दवारा करवाया गया, उसी स्थल पर बाद में राजा कनिष्क द्वारा भव्य
स्तूप का निर्माण किया गया। वर्त्तमान में
इस स्तूप को कनिष्क स्तूप कहा जाता है। बौध्द धर्म में पूजास्थल के रूप में
मंदिरों एंव स्तूप की स्थापना करने की परंपरा बेहद पुरानी है। बुध्द के
महापरिनिर्वान के बाद उनके शरीर का दहसंस्करण हुवा और उनके अस्थियोंको भिक्षुक और धर्मवाहकोने
संपूर्ण जम्बुद्वीप ( भारत को पहले जम्बुद्वीप नाम से जाना जाता था) के चारो
दिशाओं में तथागत बुध्द की अस्थिया लेकर मंदिर/स्तूप निर्माण करवाए गए। ये इसीलिए
किया गया की, जनताको तथागत बुध्द
के साक्षर रूप को पूजने का अवसर मिले।
बौध्द धर्म के दो प्रमुख रूप है। हीनयान और महायान. हीनयान
परंपरा को माननेवाले भारत के अतिरिक्त दक्षिण पूर्व एशिया के बर्मा, थाईलैंड, कंबोडिया, लाओस तथा श्रीलंका आदि देश है। वही महायान संपूर्ण
एशिया, तिब्बत चीन, कोरिया, जापान, व्हिएतनाम आदि देश में गया। हीनयान
परंपरामे गौतम बुध्द को दर्शाने हेतु चैत्य/स्तूप की स्थापना करने का प्रबल परिचलन
है। वही महायान परंपरा में बुध्द के रूप एंव उनकी छवि को दर्शाने के विविध प्रकार
है। महायान परंपरासे वज्रयान एंव तंत्रयान का उदय होता है। लद्दाख में वे दिखाई
देते है। लद्दाख में जिस बौध्द धर्म का चलन है, उसे महायान के नाम से जाना जाता है। बुध्द के प्रवचनोंके संकलन
के लिए कई संगीतिया आयोजित की गई, इस मूल प्रवचनों को त्रिपिटिक कहा गया।
हिनयानोंकी इसे मान्यता है। जबकि लद्दाखी महायान धर्मावलंबी त्रिपिटिक को कांग्युर
के नाम से संबोधित करते है। यहाँ का लामागण समय समय पर इसका पाठ एंव अध्यन करते
रहते है।
बौध्द धर्म की चौथी संगीति सम्राट कनिष्क के समय काश्मीर के कुंडलवन में हुई थी। इसका समय १०० ई.स. के आसपास है। संगीति में नागार्जुन, असंग, वसुमित्र और अश्वघोष इनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी। इस संगीति का महत्वपूर्ण परिणाम महायान परंपरा का शुरू होना है। योगाचार और माध्यमिक (शून्यवाद) महायान का प्रमुख अंग है। लेकिन आज के तिब्बत एंव लद्दाख सहित हिमालय के क्षेत्रो में जिस महायान धर्म का प्रचालन हुवा, उसकी नींव 7-8 ई.स. में आचार्य पद्मसंभव द्वारा रखी गई। महाकश्यप और पद्मसंभव का लद्दाख में भ्रमण सबंधी सूचना पुराणी कविताए एंव रचनाओं में मिलती है। महायान में पद्मसंभव को द्वितीय बुध्द का स्थान प्राप्त हुवा है। उन्होंने लद्दाख में लामा मठो की स्थापना की। लद्दाखी युवक बौध्द शिक्षा प्राप्त करने हेतु उस समय के बौध्द विद्यास्थल नालंदा, विक्रमशिला एंव काश्मीर जाया करते थे। लद्दाख के बौध्द धर्मावलंबियोने किसी अन्य धर्म एंव संप्रदाय का विरोध नहीं किया। किंतु बौध्द-मुस्लिम-ख्रिश्चन-हिंदूओमे मिलजुलकर रहनेकी परंपरा है, जैसे की एक वृक्ष के रंगबेरंगी फुल। अन्य विचारधारओंका सन्मान एंव आदर करना लद्दाखी समुदाय की विशेषत: है। लद्दाखियोंपर तथागत गौतम बुध्द तथा अन्य गुरुओंके विचारोका प्रभाव है। लद्दाख में लामा लोचावा रिन्छेंन जंगपो (११ वि शताब्धी) और लोचावा फकपा शेसरब (१४ वि शताब्धि) का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। वे अपने समय के महापंडित थे। उन्होंने सेकड़ो संस्कृत ग्रंथो का तिब्बती में अनुवाद किया।
लद्दाख में बौध्द धर्म के परंपराओंको प्रसारित करने में
लामा मठो (मोनेस्ट्री) की बड़ी भूमिका रही है. जातक कथाओंको मोनेस्ट्री एंव मंदिरों (गोन्पा) में आरेखित किया
है। यहाँ पुराने मठो की संख्या किसी अन्य के तुलना में अधिक है। इन मठो में तथागत
बुध्द, अवलोकितेश्वर, पद्मसंभव, तारा और मैत्रेय की मुर्तिया लगी हुई है। यहा बेहद
दर्शनीय और खुबसूरत मोनेस्ट्री स्थापित है, जिनमे लेह, हेमिस, ठिकसे, माहे, हनले, स्पितुक, प्यांग, लिकिर, लामयुरु, झंस्कर, दिस्कित और शांति स्तूप का अंतर्भाव है। इन
मोनेस्ट्रीयोंमे बुद्दिस्ट त्यौहार और धार्मिक
सभाओ का आयोजन होता है। इनके प्राथनाओमे मानव जाती के लिए सुख, शांति और समृध्दता की मांग की जाती है। लेकिन,
क्या आधुनिक जीवनशैली, अन्य धर्मोकी आक्रमकता और धर्मे तथाकथित राजनीतिक हस्तक्षेप
के जंजाल से बौध्द परंपरा और लद्दाखी संस्कृति अबाधित रहेगी? यह एक बड़ा सवाल है।क हस्तक्षेप
के जंजाल से बौध्द परंपरा और लद्दाखी संस्कृति अबाधित रहेगी? यह एक बड़ा सवाल है।
लेखक: बापू राऊत
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