सच पूछिए तो उत्तर प्रदेश के इस चुनाव अभियान के दौरान मैंने न उनके न उनकी सरकार के बारे में एक भी अच्छी खबर पढ़ी या सुनी है। बुरी बातें इतनी की गईं हैं उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के बारे में कि दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में खबर गरम है उनकी सरकार के जाने की। इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए मैं पिछले सप्ताह लखनऊ पहुंची।
शहर में दाखिल होते ही मुझे लाल पत्थर के बने स्मारक दिखे। एक लंबी, ऊंची दीवार के पीछे से दिखे बड़े-बड़े गुंबद और विशाल मूर्तियां। मेरा ड्राइवर रंजीत, तो खुद इत्तफाक से दलित था, गुंबदों की तरफ इशारा करके कहने लगा, 'यह कांशीराम स्मारक है। इसमें कांशीराम, बुद्ध और मायावती की मूर्तियां हैं, जिन्हें चुनाव आयोग ने ढंक दिया है।' इससे चरचा शुरू हुई मायावती की तथाकथित फिजूलखर्ची की। रंजीत से पूछने का मौका मिला मुझे कि एक दलित होने के नाते उसे कैसा लगता है इन इमारतों को देखकर। फौरन जवाब आया, 'बहुत अच्छा लगता है। ' उसने आगे कहा कि इन इमारतों को देखने देहातों से जब दलित लोग आते हैं, तो वह गौरवाविंत होते हैं। मैंने जब अर्ज किया कि मेरी राय में यह पैसा अगर अस्पतालों और स्कूलों पर खर्च किया जाता, तो ज्यादा गर्व की बात होती, तो उसने सिर्फ इतना कहा कि 'वह भी बनाए हैं मायावतीजी ने, गरीबों के लिए बहुत कुछ किया है। 'फिर रंजीत मुझे लेकर गया महामाया आवास योजना के तहत बनाए गए वह, ' अपार्टमेंट' दिखाने, जो शहर के निशातगंज इलाके में गरीबों को मुफ्त दिए गए हैं। निशातगंज के पुल के नीचे एक झुग्गी बस्ती में रहनेवाले लोगों के लिए बने हैं यह छोटे फ्लैट एक चार मंजिला बिल्डिंग। उनके सामने अब भी दिखती हैं झुग्गियां, जिनकी जगह पक्की इमारतें बनाई जा रही हैं। एक महिला ने गर्व से मुझे अपना नया घर दिखाया, 'यह बैठने का कमरा है, यह टॉयलेट, यह सोने का कमरा और यह रसोई। बहुत खुश हैं हम कि मायावती ने हमारे लिए ऐसा किया।' इसके बाद मैं मिलने गई बुद्धिजीवियों से जिन्होंने मायावती सरकार के कामकाज को बहुत करीब से देखा है। नाम देने से इनकार करते हुए उन्होंने कहा, 'पिछले पांच वर्षों में उत्तर प्रदेश में, एक सामाजिक क्रांति आ चुकी है, जो पता नहीं क्यों आप मीडियावालों को दिखती नहीं है।' उनका मानना है कि इस अदृश्य सामाजिक क्रांति के कारण दलितों को अपनी प्रतिष्ठा का एहसास हुआ है पहली बार। वे कहते हैं, 'जब आप लोग मायावती के बनाए दलित स्मारकों की आलोचना करते हैं, तो शायद समझते नहीं हैं कि आम दलितों के लिए इसका कितना महत्व है। ' अगले दिन रंजीत के साथ मैं कुछ अंबेडकर गांव देखने गई जो रायबरेली के रास्ते में पड़ते हैं। पहला गांव था, मस्तीपुर, जो अंबेडकर गांव बनने के बाद चमक गया है। मस्तीपुर के अंदर तक एक पक्की सड़क जाती है जिस पर गाड़ियां चल सकती हैं। यहां अब न बिजली की समस्या है न पानी की। लेकिन प्रधान अयोध्या प्रसाद संतुष्ट नहीं थे, 'यह सब हमारे प्रधान बनने से पहले हुआ था। अब हम मांग कर रहे हैं कबसे कि गांव में 25 कालोनियों की जरूरत है, लेकिन कुछ नहीं हो रहा है। ' 'कॉलोनी' का मतलब यहां है एक कमरे का घर, जो उनको मिलता है, जिनके पास पक्के घर न हों। रायबरेली चुनाव क्षेत्र के दायरे में भी मैंने अंबेडकर गांव देखे जिनमें बिजली, सड़क, पानी और 'कालोनियां' बनी थीं। इस योजना के तहत वही गांव आ सकते हैं, जिनकी आबादी 75 फीसदी से अधिक दलितों की हो। अब तक 2,000 गांवों तक यह योजना पहुंच चुकी है। ऐसा नहीं है कि मायावती ने उत्तर प्रदेश से गरीबी मिटा दी है। ऐसा भी नहीं है कि सदियों से हो रहा दलितों पर अत्याचार समाप्त हो गया है, उनके राज में या बेरोजगारी की गंभीर समस्या हल हो चुकी है। लेकिन ऐसा जरूर है कि बदलाव के आसार दिखने लग गए हैं, भारत के सबसे बड़े और सबसे पिछड़े राज्य में। इस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा आर्थिक है, विकास का है। जिस राज्य में चुनाव के मुद्दे हमेशा होते थे जाति-धर्म के, मंदिर-मसजिद के, यह बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है। सामाजिक क्रांति हो न हो, सामाजिक क्रांति के आसार बने तो हैं। सो, उत्तर प्रदेश के कई राजनीतिक मौसम देखने के नाते मैं यह कहना जरूरी समझती हूं कि मेरी राय में मायावती इस राज्य के सबसे काबिल मुख्यमंत्रियों में गिनी जा सकती हैं। |
Monday, March 12, 2012
लेखिका तवलीन सिह को मायावती राज का सुखद एंव अनोखा अनुभव
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